पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/६४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६१९
नई धारा

स्वजनि, रोता है और गान।
प्रिय तक नहीं पहुँच पाती है उसकी कोई तान।
xxxx
बस इसी प्रिय-कानन-कुंज में––मिलन भाषण के स्मृति पुंज में––
अभय छोड़ मुझे तुम दीजियो, हसन-रोदन से न पसीजियों।

('साकेत')

स्वर्गीय पं॰ रामचरित उपाध्याय का जन्म सं॰ १९२९ में गाजीपुर में हुआ था, पर पिछले दिनों में वे आजमगढ़ के पास एक गाँव में रहने लगे थे। कुछ वर्ष हुए,उनका देहांत हो गया। वे संस्कृत के अच्छे पंडित ये और पहले पुराने ढंग की हिंदी-कविता की ओर उनकी रुचि थी। पीछे 'सरस्वती' में जब खड़ी बोली की कविताएँ निकलने लगीं तब वे नए ढंग की रचना की ओर बढ़े और द्विवेदीजी के प्रोत्साहन से बराबर उक्त पत्रिका में अपनी रचनाएँ भेजते रहे। 'राष्ट्र-भारती', 'देवदूत', 'देवसभा', 'देवी द्रौपदी', 'भारत भक्ति', 'विचित्र विवाह' इत्यादि अनेक कविताएँ उन्होंने खड़ी बोली में लिखी है। छोटी कविताएँ अधिकतर विदग्ध भाषण के रूप में हैं। 'रामचरित-चिंतामणि' नामक एक बड़ा प्रबंधकाव्य भी उन्होंने लिखा है जिसके कई एक प्रसंग बहुत सुंदर बन पढ़े है जैसे––'अंगद-रावण-संवाद'। भाषा उनकी साफ होती थी और कुछ वैदग्ध्य के साथ चलती थी। अंगद-रावण-संवाद की ये पंक्तियाँ देखिए––

कुशल से रहना यदि है तुम्हे, दनुज! तो फिर गर्व न कीजिए।
शरण में गिरिए रघुनाथ के; निबल के बल केवल राम हैं।
xxxx
सुन कपे! यम इद्र, कुबेर की न हिलती रसना 'मम' सामने।
तदपि आज मुझे करना पड़ा मनुज-सेवक से बकवाद भी।
यदि कपे! मम राक्षस-राज को स्तवन हे तुझसे न किया गया।
कुछ नहीं डर है; पर क्यों वृथा निलज। मानव-मान बढ़ा रहा?

दूसरे संस्कृत के विद्वान् जिनकी कविताएँ 'सरस्वती' में बराबर छपती रहीं