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हिंदी-साहित्य का इतिहास

कर देते हैं बाहर भुनगो का परिवार,
तब करते हैं कीश उदुंबर का आहार।

पक्षीगृह विचार तरुगण को नहीं हिलाते हैं गजवृंद।
हंस भृंग-हिंसा के भय से खाते नई बंद अरविंद॥

धेनुवत्स जब छक जाते हैं पीकर छीर,
तब कुछ दुहते है, गौऔं को चतुर अहीर।

लेते हैं हम मधुकोशों से मधु जो गिरे आप ही आप।
मक्खी तक निदान इस थल की पाती नहीं कभी संताप॥

(वसंत-वियोग)

सरकारी कानून को रखकर पूरा ध्यान।
कर सकते हो देश का सही तरह कल्याण॥
सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो।
करके कुछ उद्योग सोग सब हर सकते हो॥
जो हो तुम में जान, आपदा भारी सारी।
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी॥

पं॰ नाथूराम शंकर शर्मा का जन्म संवत् १९१६ में और मृत्यु १९८९ में हुई। वे अपना उपनाम 'शंकर' रखते थे और पद्यरचना में अत्यंत सिद्धहस्त थे। पं॰ प्रतापनारायण मिश्र के वे साथियों में थे और उस समय के कवि-समाजों में बराबर कविता पढ़ा करते थे। समस्या-पूर्ति वे बड़ी ही सटीक और सुंदर करते थे जिससे उनका चारों ओर पदक, पगड़ी, दुशाले आदि से सत्कार होता था। 'कवि व चित्रकार', 'काव्य-सुधाधर', 'रसिक-मित्र' आदि पत्रों में उनकी अनूठी पूर्तियाँ और ब्रजभाषा की कविताएँ बराबर निकली करती थीं। छंदों के सुंदर नपे तुले विधान के साथ ही उनकी उद्भावनाएँ भी बड़ी अनूठी होती थीं। वियोग का यह वर्णन पढ़िए––

शंकर नदी नद नद्रीसन के नीरन की
भाप बन अंबर तें ऊँचो चढ़ जाएगी।
दोनों ध्रुव-छोरन लौं पल में पिघलकर
धूम धूम धरनी धुरी सी बढ़ जाएगी।