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हिंदी-साहित्य का इतिहास

पंडित गयाप्रसाद शुक्ल (सनेही) हिंदी के एक बड़े ही भावुक और सरस-हृदय कवि हैं। ये पुरानी और नई दोनों चाल की कविताएँ लिखते हैं। इनकी बहुत सी कविताएँ 'त्रिशूल' के नाम से निकली हैं। उर्दू कविता भी इनकी बहुत ही अच्छी होती है। इनकी पुराने ढंग की कविताएँ 'रसिकमित्र', 'काव्यसुधानिधि' और 'साहित्य-सरोवर' आदि में बराबर निकलती रहीं। पीछे इनकी प्रवृत्ति खड़ी बोली की ओर हुईं। इनकी तीन पुस्तके प्रकाशित हैं––'प्रेस-पचीसी', 'कुसुमांजलि', 'कृषक-क्रंदन'। इस मैदान में भी इन्होंने अच्छी सफलता पाई। एक पद्य नीचे दिया जाता है––

तु है गगन विस्तीर्ण तो मैं एक तारा क्षुद्र हूँ।
तु है महासागर अगम, मैं एक धारा क्षुद्र हूँ॥
तू है महानद तुल्य तो में एक बूंद समान हूँ।
तू है मनोहर गीत तो मैं एक उसकी तान हूँ॥

पं० रामनरेश त्रिपाठी का नाम भी 'खड़ी बोली' के कवियों में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। भाषा की सफाई और कविता के प्रसाद गुण पर इनका बहुत जोर रहता है। काव्यभाषा में लाघव के लिये कुछ कारक-चिह्नों और संयुक्त क्रियाओं के कुछ अंतिम अवयवों को छोड़ना भी (जैसे, 'कर रहा हैं' के स्थान पर 'कर रहा' या 'करते हुए' के स्थान पर 'करते') ये ठीक नहीं समझते। काव्यक्षेत्र में जिस स्वाभाविक स्वच्छंदता (Romanticism) का आभास पं॰ श्रीधर पाठक ने दिया था उसके पथ पर चलनेवाले द्वितीय उत्थान में त्रिपाठीजी ही दिखाई पड़े। 'मिलन', 'पथिक' और 'स्वप्न' नामक इनके तीनों खंड-काव्यों में इनकी कल्पना ऐसे मर्मपथ पर चली है जिसपर मनुष्य मात्र का हृदय स्वभावतः ढलता आया है। ऐतिहासिक या पौराणिक कथाओं के भीतर न बँधकर अपनी भावना के अनुकूल स्वच्छंद संचरण के लिये कवि ने नूतन कथायों की उद्भावना की है। कल्पित आख्यानों की ओर वह विशेष झुकाव स्वच्छंद मार्ग का अभिलाष सूचित करता है। इन प्रबंध में नर-जीवन जिन रूपों में ढालकर सामने लाया गया है, वे मनुष्य मात्र का मर्मस्पर्श करनेवाले हैं तथा प्रकृति के स्वच्छंद और रमणीय प्रसार के बीच अवस्थित होने के कारण शेष सृष्टि से विच्छिन्न नहीं प्रतीत होते।