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हिंदी-साहित्य का इतिहास

के मन में जगत् और जीवन के संबंध में गंभीर जिज्ञासाएँ उठती हैं। जगत् के इन नाना रूपों का उद्गम कहाँ है? सृष्टि के इन व्यापारों का अंतिम लक्ष्य क्या है? यह जीवन हमें क्यों दिया गया है? इसी प्रकार के प्रश्न उसे व्याकुल करते रहते हैं और कभी कभी वह सोचता है––

इसी तरह की अमित कल्पना के प्रवाह में मैं निशिवासर,
बहता रहता हूँ विमोह वश; नहीं पहुँचता कहीं तीर पर।
रात दिवस की बूंदों द्वारा तन-घट से परिमित यौवन-जल,
है निकला जा रहा निरंतर, यह रुक सकता नहीं एक पल॥

कभी कभी उसकी वृत्ति रहस्योन्मुख होती है; वह सारा खेल खड़ा करनेवाले उस छिपे हुए प्रियतम का आकर्षण अनुभव करता है और सोचता है की मैं उसके अन्वेषण में क्यो न चल पडूँ।

उसकी सुमना उसे दिन रात इस प्रकार भावनाओं में ही मग्न और अव्यवस्थित देखकर कर्ममार्ग पर स्थित हो जाने का उपदेश देती है––

सेवा है महिमा मनुष्य की, न कि अति उच्च विचार-द्रव्य-बल।
मूल हेतु रवि के गौरव का है प्रकाश ही न कि उच्च स्थल॥
मन की अमित तरगों में तुम खोते हो इस जीवन का सुख‌।

इसके उपरांत देश पर शत्रु चढाई करता है और राजा उसे रोकने में असमर्थ होकर घोषणा करता है कि प्रजा अपनी रक्षा कर ले। इस पर देश के झुंड के झुंड युवक निकल पड़ते है और उनकी पत्नियाँ और माताएँ गर्व से फूली नहीं समाती हैं। देश की इस दशा में बसंत को घर में पड़ा देख उसकी पत्नी सुमना को अत्यंत लज्जा होती है और वह अपने पति से स्वदेश के इस संकट के समय शस्त्र-ग्रहण करने को कहती है। जब वह देखती है कि उसका पति उसी के प्रेम के कारण नहीं उठता है तब वह अपने को ही प्रिय के कर्त्तव्य-पथ का बाधक समझती है। वह सुनती है कि एक रुग्णा वृद्धा यह देखकर कि उसका पुत्र उसी की सेवा के ध्यान से युद्ध पर नहीं जाता है, अपना प्राणत्याग कर देती है। अंत में सुमना अपने को बसंत के सामने से