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नई धारा

की "वन-विहंगम" नाम की कविता में हृदय की विशालता और सरसता का बहुत अच्छा परिचय मिलता है। 'दलित कुसुम' की अन्योक्ति भी बड़ी हृदय-ग्राहिणी है। संस्कृत और हिंदी दोनों के छंदों में खड़ी बोली को इन्होंने बड़ी सुघड़ाई से ढाला है। यहाँ स्थानाभाव से हम दो ही पद्य उद्धृत कर सकते हैं।

अहह! अधम आँधी, आ गई तू कहाँ से?
प्रलय-घन-घटा सी छा-गई तू कहाँ से?
पर दुख-सुख तूने, हा! न देखा न भाला।
कुसुम अधखिला ही, हाय! यों तोड़ डाला॥


वन बीच बसे थे, फँसे थे ममत्व में एक कपोत कपोता कहीं।
दिन रात न एक को दूसरा छोड़ता, ऐसे हिले मिले दोनों वहीं॥
बढ़ने लगा नित्य नया नया नेह, नई नई कामना होती रही।
कहने का प्रयोजन है इतना, उनके सुख की रही सीमा नहीं॥

खड़ी बोली की खरखराहट (जो तब तक बहुत कुछ बनी हुई थी) के बीच 'वियोगी हरि' के समान स्वर्गीय पं॰ सत्यनारायण कविरत्न (जन्म संवत् १९३६ मृत्यु १९७५) भी ब्रज की मधुर वाणी सुनाते रहे। रीतिकाल के कवियों की परंपरा पर न चलकर वे या तो भक्तिकाल के कृष्णभक्त कवियों के ढंग पर चले हैं अथवा भारतेंदु-काल की नूतन कविता की प्रणाली पर। ब्रजभूमि, ब्रजभाषा और ब्रज-पति का प्रेम उनके हृदय की संपत्ति थी। ब्रज के अतीत दृश्य उनकी आँखों में फिरा करते थे। इंदौर के पहले साहित्य सम्मेलन के अवसर पर वे मुझे वहाँ मिले थे। वहाँ की अत्यंत काली मिट्टी देख वे बोले, "या माटी कों तो हमारे कन्हैया न खाते"।

अँगरेजी की ऊँची शिक्षा पाकर उन्होंने अपनी चाल-ढाल ब्रजमंडल के ग्रामीण भले-मानसों की ही रखी। धोती, बगल बदी और दुपट्टा; सिरपर एक गोल टीपी, यही उनका वेश रहता था। वे बाहर जैसे सरल और सदे थे, भीतर भी वैसे ही थे। सादापन दिखावे के लिये धारण किया हुआ नहीं है स्वभावगत है, यह बात उन्हें देखते ही और उनकी बातें