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हिंदी-साहित्य का इतिहास

सुनते ही प्रगट हो जाती थी। बाल्यकाल से लेकर जीवनपर्यंत वे आगरे से डेढ़ कोस पर ताजगंज के पास धाँधूपुर नामक गाँव में ही रहे। उनका जीवन क्या था, जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था। उनका जन्म और बाल्यकाल, विवाह और गृहस्थ, सब एक दुःखभरी कहानी के संबद्ध खंड थे। वे थे ब्रजमाधुरी में पगे जीव; उनकी पत्नी थीं आर्य-समाज के तीखेपन में तली महिला। इस विषमता की विरसता बढ़ती दी गई और थोड़ी ही अवस्था में कविरत्नजी की जीवन यात्रा समाप्त हो गई।

ब्रजभाषा की कविताए में छात्रावस्था ही में लिखने लगे। वसंतागमन पर, वर्षा के दिनों में वे रसिये आदि ग्राम-गीत अपढ़ ग्रामीणों में मिलकर निस्संकोच गाते थे। सवैया पढ़ने का ढंग उनका ऐसा आकर्षक था कि सुननेवाले मुग्ध हो जाते थे। जीवन की घोर विषमताओं के बीच भी वे प्रसन्न और हँसमुख दिखाई देते थे। उनके लिये उनका जीवन ही एक काव्य था, अतः जो बाते प्रत्यक्ष उनके सामने आती थीं उन्हें काव्य का रूप-रंग देते उन्हें देर नहीं लगती थी। मित्रों के पास में प्राय: पद्य में पत्र लिखा करते थे जिनमें कभी कभी उनके स्वभाव की झलक भी रहती थी, जैसे स्वर्गीय पद्मसिंह जी के पास भेजी हुई इस कविता में––

जो मो सों हँसि मिले होत मैं तासु निरंतर चेरो।
बस गुन ही गुन निरखत तिह मधि सरल प्रकृति को प्रेरो॥
यह स्वाभाव को रोग जानिए, मेरो बस कछु नाहीं।
निज नव विकल रहत याहीं तो सहृदय-बिछुरन माहीं॥
सदा दारू-योपित सम बेबस आशा सुदित प्रमानै।
कोरो सत्य आम को बासी कहा "तकल्लुफ" जानै॥

किसी का कोई अनुरोध टालना तो उनके लिये असंभव था। यह जानकर बराबर लोग किसी न किसी अवसर के उपयुक्त कविता बना देने की प्रेरणा उनसे किया करते थे और वे किसी को निराश न करते थे। उनकी वही दशा थी जो उर्दू के प्रसिद्ध शायर इंशा की लखनऊ-दरबार में हो गई थी। इससे उनकी अधिकांश रचनाएँ सामयिक है और जल्दी में जोड़ी हुई प्रतीत होती है,