कौने भेजौं दूत पूत सों विद्या सुनावै।
बातन में बहराह जाए ताको यह लावै॥
त्यागि मधुपुरी को गयो छाँड़ि सबन के साथ।
सात समुंदर पै भयो दूर द्वारकानाथ॥
जाइगो को उहाँ?
नित नव परत अकाल, काल को चलत चक्र चहुँ।
जीवन को आनंद न देख्यो जात, यहाँ कहुँ।
बढ्यो यथेच्छाचारकृत जहँ देखौ तहँ राज।
होत जात दुर्बल विकृत दिन दिन आर्य-समाज॥
दिनन के फेर सों।
जे तजि मातृभूमि सों ममता होत प्रवासी।
तिन्है बिदेसी तंग करत है विपदा खासी॥
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नारी शिक्षा अनादरत जे लोग अनारी।
ते स्वदेश-अवनति-प्रंचड-पातक-अधिकारी॥
निरखि हाल मेरो प्रथम लेहु समुझि सब कोइ।
विद्याबल लहि मति परम अबला सबला होइ॥
लखौं अजमाई कै।
(भ्रमरदूत)
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भयो क्यों अनचाहत को संग?
सब जग के तुम दीपक, मोहन! प्रेमी हमहूँ पतंग।
लखि तव दीपति, देह-शिखा में निरत, विरह लौ लागी।
खीचति आप सो आप उतहि यह, ऐसी प्रकृति अभागी।
यदपि सनेह-भरी तब बतियाँ, तउ अचरज की बात।
योग वियोग दोउन में इक सम नित्य जरावत गात॥
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