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नई धारा


किंतु उसी बुझते प्रकाश में डूब उठा मैं और बहा।
निरुद्देश नख-रेखाओं में देखी तेरी मूर्ति अहा!

गुप्तजीं तो, जैसा पहले कहा जा चुका है, किसी विशेष पद्धति या 'वाद' में न बँधकर कई पद्धतियों पर अब तक चले आ रहे है। पर मुकुटधरजी बराबर नूतन पद्धति पर ही चले। उनकी इस ढंग की प्रारंभिक रचनाओं में 'आशु', 'उद्गार' इत्यादि ध्यान देने योग्य हैं। कुछ नमूने देखिए––

(क) हुआ प्रकाश नमोमय प्रग में
मिला मुझे तू, दक्षिण जग में,
दंपति के मधुमय विलास में,
शिशु के स्वप्नोत्पन्न हास में,
वन्य कुसुम के शुचि सुवास में,
था तब क्रीटा-स्थान।

(१९१७)

(ख) मेरे जीवन की लघु तरणी,
आँखों के पानी में तर जा।
मेरे उर का छिपा खजाना,
अहंकार का भाव पुराना,
बना आज तू मुझे दिवाना,
तप्त श्वेत बूँदों में ढर जा।

(१९१७)

(ग) जब संध्या को ::हट जावेगी भीड़ महान्।
तब जाकर मैं तुम्हें सुनाऊँगा निज गान।
शून्य कक्ष के अथवा कोने में ही एक।
बैठ तुम्हारा करूँ वहाँ नीरव अभिषेक।

(१९२०)

पं॰ बदरीनाथ भट्ट भी सन् १९१३ के पहले से ही भाव-व्यंजक और अनूठे गीत रचते आ रहे थे। दो पंक्तियाँ देखिए––

दे रहा दीपक जलकर फूल,
रोपी उज्ज्वल प्रभा-पताका अंधकार हिय हूल।