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नई धारा

से संबंध न रखनेवाली कविताएँ भी छायावाद ही कही जाने लगीं।अतः 'छायावाद' शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही न रहकर काव्य-शैली के संबंध में भी प्रतीकवाद (Symabolism) के अर्थ में होने लगा।

छायावाद की इस धारा के आने के साथ ही साथ अनेक लेखक नवयुग के प्रतिनिधि बनकर योरप के साहित्य-क्षेत्र में प्रवर्तित काव्य और कला संबंधी अनेक नए पुराने सिद्धांत सामने लाने लगे। कुछ दिन, 'कलावाद' की धूम रही और कहा जाता रहा "कला का उद्देश्य कला ही है। इस जीवन के साथ काव्य का कोई संबंध नही; उसकी दुनिया ही और है किसी काव्यं के मूल्य का निर्धारण जीवन की किसी वस्तु के मूल्य के रूप में नहीं हो सकता है काव्य तो एक लोकातीत वस्तु है। कवि एक प्रकार का रहस्यदर्शी (Seer) या पैगंबर है[१]। इसी प्रकार क्रोचे के अभिव्यंजनावाद को लेकर बताया गया कि "काव्य में वस्तु या वर्ण्य-विषय कुछ नहीं; जो कुछ है वह अभिव्यंजना के ढंग का अनूठापन है[२]। "इन दोनों वादों के अनुसार काव्य का लक्ष्य उसी प्रकार सौंदर्य की सृष्टि या योजना कहा गया जिस प्रकार बेल-बूटे यो नक्काशी का। कवि-कल्पना प्रत्यक्ष-जगत् से अलग एक रमणीय स्वप्न घोषित किया जाने लगा और कवि सौंदर्य-भावना के मद में झूमनेवाला एक लोकातीत जीव। कला और काव्य की प्रेरणा का संबंध स्वप्न और कामवासना से बतानेवाला मत भी इधर-उधर उद्धृत हुआ। सारांश यह कि इस प्रकार के वाद-प्रवाद पत्र-पत्रिकाओं में निकलते रहे।

'छायावाद' की कविता की पहली दौड़ तो बंगभाषा की रहस्यात्मक कविताओं के सजीले और कोमल मार्ग पर हुई। पर उन कविताओं की बहुत-कुछ गतिविधि अँगरेजी वाक्य-खडों के अनुवाद द्वारा संघटित देख, अँगरेजी काव्यों से परिचित हिंदी-कवि सीधे अँगरेजी से ही तरह तरह के लाक्षणिक प्रयोग लेकर उनके ज्यों के त्यो अनुवाद जगह जगह अपनी रचनाओं में जड़ने लगे। 'कनक प्रभात', 'विचारों में बच्चों की साँस', 'स्वर्ण समय', 'प्रथम मधुबाल',


  1. विशेष देखो पृ॰ ५६८–७१ ।"
  2. देखो पृष्ठ ५७१–७२।