उसकी अभिव्यंजना प्रणाली में अब अच्छी सरसता और सजीवता तथा अपेक्षित वक्रता का भी विकास होता चल रहा है।
यद्यपि कई वादों के कूद पड़ने और प्रेमगान की परिपाटी (Lovelyrics) का फैशन चल पड़ने के कारण अर्थ-भूमि का बहुत कुछ संकोच हो गया और हमारे वर्तमान काव्य का बहुत-सा भाग कुछ रूढ़ियों को लेकर एक बँधी लीक पर बहुत दिनों तक चला, फिर भी स्वाभाविक स्वच्छंदता (True Romanticism) के उस नूतन पथ का ग्रहण करके कई कवि चले जिसका उल्लेख पहले हो चुका है। पं॰ रामनरेश त्रिपाठी के संबंध में द्वितीय उत्थान के भीतर कहा जा चुका है। तृतीय उत्थान के आरंभ में पं॰ मुकुटधर पांडेय की रचनाएँ छायावाद के पहले किस प्रकार नूतन, स्वच्छंद मार्ग निकाल रही थी यह भी हम दिखा आए हैं। मुकुटधरजी की रचनाएँ नरेतर प्राणियों की गतिविधि का राग-रहस्यपूर्ण परिचय देती हुई स्वाभाविक स्वच्छंदता की ओर झुकती मिलेगी। प्रकृति-प्रागण के चर-अचर प्राणियों का रागपूर्ण परिचय, उनकी गति-विधि पर आत्मीयता-व्यंजक दृष्टिपात , सुख-दुख में उनके साहचर्य की भावना, ये सब बातें स्वाभाविक स्वच्छंदता के पथ-चिन्ह हैं। सर्वश्री सियारामशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, ठाकुर गुरुभक्तसिंह, उदयशंकर भट्ट इत्यादि। कई कवि विस्तृत अर्थ भूमि पर स्वाभाविक स्वच्छंदता का मर्मपथ ग्रहण करके बन रहे हैं। वे न तो केवल नवीनता के प्रदर्शन के लिये पुराने छंदों-को तिरस्कार करते हैं, न उन्हीं से एकबारगी बँधकर चलते हैं। वे प्रसंग के अनुकूल परंपरागत पुराने छंदों का व्यवहार और नए ढंग के छदों तथा चरण-व्यवस्थाओं का विधान भी करते हैं, व्यंजक चित्र-विन्यास, लाक्षणिक वक्रता और मूर्तिमत्ता, सरल पदावली आदि का भी सहारा लेते है, पर इन्हीं बातों को सब कुछ नहीं समझते। एक छोटे से घेरे में इनके प्रदर्शन मात्र से वे संतुष्ट नहीं दिखाई देते हैं। उनकी कल्पना इस व्यक्त जगत और जीवन की अनंत वीथियों में हृदय की साथ लेकर विचरने के लिये आकुल दिखाई देती है।
तृतियोत्थान की प्रवृत्तियों के इस संक्षिप्त विवरण से ब्रजभाषा-काव्य परंपरा के अतिरिक्त इस समय चलनेवाली खड़ी बोली की तीन मुख्य धाराएँ स्पष्ट हुई होंगी––द्विवेदी-काल की क्रमशः विस्तृत और परिष्कृत होती हुई धारा, छायावाद