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नई धारा

बोली वास्तव में इसी धारा के भीतर मँजी है। भाषा का मँजना वहीं संभव होता है जहाँ उसकी अपनी गतिविधि का पूरा समावेश होता है और कुछ दूर तक चलनेवाले वाक्य सफाई के साथ पद्यों में बैठते चले जाते है। एक संबंध सूत्र में बद्ध कई अर्थ-समूहों की एक समन्वित भावना व्यक्त करने के लिये ही ऐसी भाषा अपेक्षित होती है। जहाँ एक दूसरे से असंवद्ध छोटी-छोटी भावनाओं को लेकर वाग्वैशिष्टय की झलक यो चलचित्र की-सी छाया दिखाने की प्रवृत्ति प्रधान होगी वहाँ भाषा की समन्वयशक्ति का परिचय न मिलेगा। व्यापक समन्वय के बिना कोई ऐसा समन्वित प्रभाव भी नहीं पड़ सकता जो कुछ काल तक स्थायी रहे। स्थायी प्रभाव की ओर लक्ष्य इस काव्य-धारा में बना हुआ है।

दूसरी बात जो इस धारा के भीतर मिलती है वह है हमारे यहाँ के प्रचलित छंदों या उनके भिन्न-भिन्न योगों से संघटित छंदों का व्यवहार। इन छंदों की लयों के भीतर नाद-सौंदर्य की इमारी रुचि निहित है। नवीनता में बट्टा लगने के डर से ही इन छंदो को छोड़ना सहृदयता से अपने को दूर बताना हैं। नई रंगत की कविताओं में जो पद्य यो चरण रखे जाते हैं उन्हें प्रायः अलापने की जरूरत होती है। पर ठीक लय के साथ कविता पढ़ना और अलाप के साथ गाना दोनों अलग अलग है।

इस धारा में कल्पना और भावात्मिका वृत्ति अधर में नाचती तो नहीं मिलती हैं पर बोध-वृत्ति द्वारा उद्घाटित भूमि पर टिककर उसकी मार्मिकता का प्रकाश करती अवश्य दिखाई पड़ती है। इससे कला का कुतूहल तो नहीं खड़ा होता, पर हृदय को रमानेवाली बात सामने आ जाती है। यह बात तो स्पष्ट है। कि ज्ञान ही काव्य के संचरण के लिये रास्ता खोलता है। ज्ञान-प्रसार के भीतर-ही हृदय-प्रसार होती है और हृदय-प्रसार ही काव्य का सच्चा लक्ष्य है। अतः ज्ञान के साथ लगकर ही जब हमारा हृदय परिचालित होगा तभी काव्य की नई नई मार्मिक अर्थभूमियों की ओर वह बढ़ेगा। ज्ञान को किनारे रखकर, उसके द्वारा सामने लाए हुए जगत् और जीवन के नाना पक्षों की ओर न बढ़कर, यदि काव्य प्रवृत्त होगा तो किसी एक भाव को लेकर अभिव्यंजना के वैचित्र्य-प्रदर्शन में लगा रह जायगा। इस दशा में काव्य का विभाव पक्ष शून्य होता