जायगा, उसकी अनेकरूपकता सामने न आएगी। इस दृष्टि से देखने पर यह कहा जा सकता है कि यह धारा एक समीचीन पद्धति पर चली। इस पद्धति के भीतर इधर आकर काव्यत्व का अच्छा विकास हो रहा है, यह देखकर प्रसन्नता होती है।
अब इस पद्धति पर चलनेवाले कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख किया जाता हैं।
ठाकुर गोपालशरणसिंह––ठाकुर साहब अनेक मार्मिक विषयों का चयन करते चले हैं। इससे इनकी रचनाओं के भीतर खड़ी बोली बराबर मँजती चली आ रही है। इन रचनाओं का आरंभ संवत् १९७१ से होता है। अब तक इनकी रचनाओं के पाँच संग्रह निकल चुके हैं––माधवी, मानवी, संचिता, ज्योष्मती, कादंबिनी। प्रारंभिक रचनाएँ साधारण हैं, पर आगे चलकर हमें बराबर मार्मिक उद्भावना तथा अभिव्यंजना की एक विशिष्ट पद्धति मिलती है। इनकी छोटी छोटी रचनाओं में, जिनमें से कुछ गेय भी हैं, जीवन की अनेक दशाओं की झलक हैं। 'मानवी' में इन्होंने नारी को दुलहिन, देवदासी, उपेक्षिता, अभागिनी, भिखारिनी, वारांगना इत्यादि अनेक रूपों में देखा है। 'ज्योतिष्मती' के पूर्वार्द्ध में तो असीम और अव्यक्त 'तुम' हैं और उत्तरार्द्ध में ससीम और व्यक्त 'मै' संसार के बीच। इसमें प्रायः उन्हीं भावों की व्यंजना है जिनकी छायावाद के भीतर होती हैं, पर ढंग बिल्कुल अलग अर्थात् रहस्यदर्शियों का सा न होकर भोले-भाले भक्तों का सा है कवि ने प्रार्थना भी की है कि––
पृथ्वी पर ही मेरे पद हों,
दूर सदा आकाश रहे।
व्यंजना को गूढ़ बनाने के लिये कुछ असंबद्धता लाने, नितांत अपेक्षित पद या वाक्य भी छोड़ देने, अत्यंत अस्फुट संबंध के आधार पर उपक्षणों का व्यवहार करने का प्रयत्न इनकी रचनाओं में नहीं पाया जाता। आज-कल बहुत चलते हुए कुछ रमणीय लाक्षणिक प्रयोग अवश्य कहीं कहीं मिलते हैं। कुछ प्रगीत मुक्तकों में यत्रतत्र छायावादी कविता के रूपक भी इन्होंने रखे हैं, पर वे खुलकर सामने आते हैं जैसे––