भूमियों के चित्र सामने लाई है। इसी प्रकार 'विराट् भ्रमण' में देवी के आकाशचारी रथ पर बैठ कवि ने इस विराट् विश्व का दर्शन किया है। एक झलक देखिए-
पीछे दृष्टिगोचर था गोल चक्र पूपण का,
घूमता हुआ जो नील संपुटी में चलता।
मानो जलयान के वितल पृष्ठ भाग मध्य,
आता चला फेन पीत पिंड-सा उबलता ।
उबल रहे थे धूमकेतु धुरियों से तीव्र,
धान-केनु-ताडित नभचक्र था उछलता ।
मास्त का, मन का, प्रसंग पड़ा पीछे जब-
आगे चला वाजि-यूथ आतप उगलता ।।
श्री जगदंबाप्रसाद ‘हितैषी'- खड़ी बोली के कवित्तों और सवैयों में वही सुरमता, वही लचक, वही भाव-मयी लाए हैं जो व्रजभाषा के कवित्तों और सवैयों में पाई जाती है । इस बात में इनका स्थान निराला है। यदि खड़ी बोली की कविता आरंभ में ऐसी ही सजीवता के साथ चली होती जैसी इनकी रचना में पाई जाती है तो उसे रूखी और नीरस कोई न कहता । रचना का रंग-रूप अनूठा और आकर्षक होने पर भी अजनबी नहीं है । शैली वही पुराने उस्तादों के कवित्त-सवैयो की है जिनमें वाग्धारा अंतिम चरण पर जाकर चमक उठती हैं । हितैषी जी ने अनेक काव्योपयुक्त विषय लेकर फुटकल छोटी छोटी रचनाएँ की हैं जो कल्लोलिनी’ और ‘नवोदिता' में संगृहीत है । अन्योक्तियों इनकी बहुत मार्मिक हैं। रचना के कुछ नमूने देखिए-
दुखिनी वनी कुटी में कभी, महलों में कभी महरानी बनी ।
बनी फूटती ज्वालामुली तो कभी, हिमकूट की देवी हिमानी बनी।
चमकी वन विद्युत् रौद्र कभी, घन आनँद अश्रु-कहानी बनीं ।
सविता-ससि-स्नेह सोहाग-सनी, कभी आग बनी कभी पानी बनी।