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हिंदी-साहित्य का इतिहास

और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ। इनमें से उपादान और लक्षण-लक्षणों को छोड़ सब बातें किसी न किसी प्रकार की साम्य-भावना के अधार पर ही खड़ी होनेवाली हैं। साम्य को लेकर अनेक प्रकार की अलंकृत रचनाएँ बहुत पहले भी होती थीं तथा रीतिकाल और उसके पीछे भी होती रही है। अतः छायावाद की रचनाओं के भीतर साम्य ग्रहण की उस प्रणाली का निरूपण आवश्यक है जिसके कारण उसे एक विशिष्ट रूप प्राप्त हुआ।

हमारे यहाँ साम्य मुख्यत: तीन प्रकार का माना गया है। सादृश्य (रूप या आकार का साम्य), साधर्म्य (गुण का क्रिया का साम्य) और केवल शब्द-साम्य (दो भिन्न वस्तुओं का एक ही नाम होना) इनमें से अंतिम तो श्लेष की शब्दक्रीड़ा दिखलानेवालों के ही काम का है। रहे सादृश्य और साधर्म्य। विचार करने पर इन दोनों में प्रभाव-ताम्य छिपा मिलेगा। सिद्ध कवियों की दृष्टि ऐसे ही अप्रस्तुतों की ओर जाती है जो प्रस्तुतों के समान ही सौंदर्य, दीप्ति, कांति, कोमलता, प्रचड़ता, भीषणता, उग्रता, उदासी, अवसाद, खिन्नता, इत्यादि की भावना जगाते हैं। काव्य में बँधे चले आते हुए उपमान अधिकतर इस प्रकार के है। केवल-रूप-रंग, आकार-या व्यापार को ऊपर से देखकर या नाप जोखकर, भावना पर उनका प्रभाव परखे बिना, वे नहीं रखे जाते थे। पीछे कवि-कर्म के बहुत कुछ श्रमसाध्य या अभ्यासगग्य होने के कारण जब कृत्रिमता आने लगी तब बहुत से अपमान केवल बाहरी नाप-जोख के अनुसार भी रखे जाने लगे। कटि की सूक्ष्मता दिखाने के लिये सिंहिनी और भीड़ सामने लाई जाने लगी।

छायावाद बड़ी सहृदयता के साथ प्रभाव साम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला हैं। कहीं कहीं तो बाहरी सादृश्य था साधर्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी अभ्यंतर प्रभाव साम्य लेकर ही अप्रस्तुतों का सनिवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (symbolic) होते हैं––जैसे, सुख, आनंद, प्रफुल्लता, योवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक ऊषा, प्रभात, मधुकाल; प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत, माधुर्य के स्थान पर, मधु दीप्ति-