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नई धारा

मान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अँधेरी रात, या संध्या की छाया, पतझड़; मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान; भाव-तरंग के लिये झंकार; भाव-प्रवाह के लिये संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि। आभ्यंतर प्रवाह-साम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्य शैली की असली विशेषता है।

हिंदी काव्य-परंपरा में अन्योक्ति-पद्धति का प्रचार तो रहा है, पर लाक्षणिकता का एक प्रकार से अभाव ही रहा। केवल कुछ रूढ़ लक्षणाएँ मुहावरों के रूप में कहीं कहीं मिल जाती थीं। ब्रजभाषा कवियों में लाक्षणिक साहस किसी ने दिखाया तो घनानंद ने। इस तृतीय उत्थान में सब से अधिक लाक्षणिक साहस पंतजी ने अपने 'पल्लव' में दिखाया। जैसे––

(१) धूल की ढेरी में अनजान। छिपे हैं मेरे मधुमय गान। (धूलकी ढेरी=असुंदर वस्तुएँ। मधुमय गान=गान के विषय अर्थात् सुंदर वस्तुएँ।)

(२) मर्म पीड़ा के हास=विकास, समृद्धि। विरोध-वैचित्र्य के लिये व्यंग्य व्यंजक संबंध को लेकर लक्षणा।) (मर्म-पीडा के हास!=हे मेरे पीड़ित मन!––आधार-आवेग संबंध लेकर)

(३) चाँदनी का स्वभाव में वास। विचारों में बच्चों की साँस। (चाँदनी=मृदुलता, शीतलता। बच्चों की साँस=भोलापन।)

(४) मृत्यु का यही दीर्घ विश्वास (मृत्यु= आसन्नमृत्यु व्यक्ति अथवा मृतक के लिये शोक करनेवाले व्यक्ति)

(५) कौन तुम अतुल अरूप अनाम। शिशु के लिये। अल्पार्थक के स्थान पर निषेधार्थक)।

'पल्लव' में प्रतिक्रिया के आवेश के कारण वैचित्र्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति अधिक थी; जिसके लिये कहीं कहीं अँगरेजी के लाक्षणिक प्रयोग भी ज्यों के त्यों ले लिए गए। पर पीछे यह प्रवृत्ति घटती गई।