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हिंदी-साहित्य का इतिहास

'अखिल की लघुता' आई वन, समय का सुंदर वातायन

देखने को अदृष्ट नर्त्तन।


––लहर




जल उठा स्नेह दीपक-सा नवनीत हृदय था मेरा।
अब शेष घूमरेखा से, चित्रित कर रहा अँधेरा॥

––आँसू



मनमाने आरोप जिनका विधान प्रकृति के संकेत पर नहीं होता, हृदय के मर्मस्थल का स्पर्श नहीं करते, केवल वैचित्र्य वा कुतूहल मात्र उत्पन्न करके रह जाते हैं। छायावाद की कविता पर कल्पनावाद, कलावाद, अभिव्यंजनावाद आदि का भी प्रभाव ज्ञात या अज्ञात रूप में पड़ता रहता है। इससे बहुत सा अप्रस्तुत विधान मनमाने आरोप के रूप में भी सामने आता है। प्रकृति के वस्तु-व्यापारों पर मानुषी वृत्तियों के आरोप का बहुत अधिक चलन हो जाने से कहीं कहीं ये आरोप वस्तु-व्यापारो की प्रकृत व्यंजना से बहुत दूर-जा पड़े है, जैसे––चाँदनी के इस वर्णन में––

(१) जग के दुख दैन्य शयन पर यह रुग्णा जीवन-बाला।
पीली पर निर्बल कोमल, कृश देह-लता कुम्हलाई।
विवसना, लाज में लिपटी; साँसों में शून्य समाई॥

चाँदनी अपने-आप इस प्रकार की भावना मन में नहीं जगाती। उसके संबंध में यह उद्भावना भी केवल स्त्री की सुंदर मुद्रा सामने खड़ी करती जान पडती है––

(२) नीले नभ के शतदल पर वह बैठी शारद-हासिनी।
मृदु करतल पर शशिमुख धर नीरव अनिमिष एकाकिनि॥

इसी प्रकार आँसुओं को "नयनों के बाल" कहना भी व्यर्थ-सा है। नीचे की जूठी प्याली भी (जो बहुत आया करती है) किसी मैखाने से लाकर रखी जान पड़ती है––