पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/७०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६७६
हिंदी-साहित्य का इतिहास

चित्रों के द्वारा अपनी भावनाएँ व्यक्त करना तो बहुत ठीक है, पर उन भावनाओं को व्यक्त करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी तो गृहीत चित्रों में होनी चाहिए।

छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेम-गीतात्मक होने के कारण हमारा वर्तमान काव्य प्रसंगों को अनेकरूपता के साथ नई नई अर्थभूमियों पर कुछ दिन तक बहुत कम चल पाया। कुछ कवियों में वस्तु का आधार अत्यंत अल्प रहता रहा है; विशेष लक्ष्य अभिव्यंजना के अनूठे विस्तार पर रहा है। इससे उनकी रचनाओं को बहुत सा भाग अधर में ठहराया सा जान पड़ता है। जिन वस्तुओं के आधार पर उक्तियाँ मन में खड़ी की जाती हैं उनका कुछ भाग कला के अनूठेपन के लिये पंक्तियों के इधर उधर से हटा भी लिया जाता है। अतः कहीं कहीं व्यवहृत शब्दों की व्यंजकता प्रर्याप्त के होने पर भाव अस्फुट रह जाता है, पाठक को अपनी ओर से बहुत कुछ आक्षेप करना पड़ता है, जैसे नीचे की पत्तियों में––

निज अलकों के अंधकार, में तुम कैसे छिप आओगे।
इतना मजग कुतूहल! ठहरो, यह न कभी बन पाओगे।
आह चूम लूँ जिन चरणों को चाँप चाँप कर उन्हें नहीं,
दुख दो इतना, अरे! अरुणिमा ऊषा-सी वह उधर नहीं।

यहाँ कवि ने उस प्रियतम के छिपकर दबे पाँव आने की बात कही हैं जिनके चरण इतने सुकुमार हैं कि जब आहट ने सुनाई पड़ने के लिये वे उन्हें बहुत दबा दबा कर रखते हैं तब एँड़ियों में ऊपर की ओर खून की लाली दौड़ जाती हैं। वही ललाई उषा की लाली के रूप में झलकती है। 'प्रसाद' जी का ध्यान शरीर-विकारों पर विशेष जमता था। इसी से उन्होंने 'चाँप चाँप कर दुख दो' में ललाई दौड़ने की कल्पना पाठकों के ऊपर छोड़ दी है। 'कामायनी' में उन्होंने मले हुए कान में भी कामिनी के कपोलों पर की 'लज्जा की लाली' दिखाई।

अभिव्यंजना की पद्धति या काव्य-शैली पर ही प्रधान लक्ष्य रहने से छायावाद के भीतर उसका बहुत ही रमणीय विकास हुआ है, यह हम पहले कह