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नई धारा

जिनमें पूरा रहस्यवाद, अभिव्यंजना का अनूठापन, व्यंजक चित्र-विधान सब कुछ मिल जाता है। 'विषाद', 'बालू की बेला' 'खोलो द्वार', 'बिखरा हुआ प्रेम', 'किरण', 'बसंत की प्रतीक्षा' इत्यादि उन्हीं पीछे जोड़ी हुई रचनाओं में हैं जो पहले (सं॰ १९७५ के) संस्करण में नहीं थीं। इस द्वितीय संस्करण में ही छायावाद कही जानेवाली विशेषताएँ स्फुट रूप में दिखाई पड़ीं। इसके पहले श्री सुमित्रानंदन पंत का 'पल्लव' बड़ी धूम धाम से निकल चुका था, जिसमें रहस्य-भावना तो कहीं कहीं, पर अप्रस्तुत-विधान, चित्रमयी भाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य आदि विशेषताएँ अत्यंत प्रचुर परिमाण में सर्वत्र दिखाई पड़ी थीं।

प्रसाद जी में ऐसी मधुमयी प्रतिभा और ऐसी जागरूक भावुकता अवश्य थी कि उन्होंने इस पद्धति का अपने ढंग पर बहुत ही मनोरम विकास किया। संस्कृत की कोमल-कांत पदावली का जैसा सुंदर चयन बंगभाषा के काव्यों में हुआ है वैसी अन्य देशी भाषाओं के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ता। उनके परिशीलन से पदलालित्य की जो गूँज प्रसाद जी के मन में समाई वह बराबर बनी रही।

जीवन के प्रेम-विलास-मय मधुर पक्ष की ओर स्वाभाविक प्रवृत्ति होने के कारण वे 'उस प्रियतम' के संयोग-वियोगवाली रहस्य- भावना में––जिसे स्वाभाविक रहस्यभावना से अलग समझना चाहिए––रमते प्रायः पाए जाते है। प्रेमचर्या के शारीरिक व्यापारों और चेष्टाओं (अश्रु, स्वेद, चुंबन, परिरंभण, लज्जा को दौड़ी हुई लाली, इत्यादि), रंगरलियों और अठखेलियों, वेदना की कसक और टीस इत्यादि की ओर इनकी दृष्टि विशेष जमती थी। इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी वल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुसकान, सुमनों के मधुपत्रि, मंडराते मलिंदो के गुंजार, सौरभहर समीर की लपक, पराग-मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा की लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ' रजनी के आँसू से भीगे अंबर, चंद्रमुख पर शरद्धन के सकते अवगुंठन, मधुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता इत्यादि पर अधिक दृष्टि जाती थी। अतः इनकी रहस्यवादी रचनाओं को देख चाहे तो यह कहे कि इनकी मधुचर्या के मानस-प्रसार