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नई धारा

ले चल वहाँ भुलावा देकर मेरे नाविक! धीरे धीरे
जिस निर्जन में सागर-लहरी अंबर के कानों में गहरी
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो तज कोलाहल की अवनी रे।

वहाँ जाने पर वह इस सुख-दुःख-मय व्यापक प्रसार को अपने नित्य और सत्य रूप में देखने की भी, पारमार्थिक ज्ञान की झलक पाने की भी, आशा करता है; क्योंकि श्रम और विश्राम के उस संधि-स्थल पर ज्ञान की दिव्य ज्योति-सी जगती दिखाई पड़ा करती है––

जिस गंभीर मधुर छाया में––विश्व चित्रपट चल माया में––
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई, दुख-सुख-वाली सत्य बनी रे।
श्रम-विश्राम क्षिलिज-वेला से, जहाँ सृजन करते मेला से––
अमर जागरण, उषा नयन से––बिखराती हो ज्योति घनी रे।

'लहर' में चार-पाँच रचनाएँ ही रहस्यवाद की हैं। पर कवि की तंद्रा और स्वप्नवाली प्रिय भावना जगह-जगह व्यक्त होती है। रात्रि के उस सन्नाटे की कामना जिसमें बाहर भीतर की सब हलचलें शांत रहती है, केवल अभावों की पूर्ति करनेवाले अतृप्त-कामनाओं की तृप्ति का विधान करनेवाले, स्वप्न ही जगा करते हैं, इस गीत में पूर्णतया व्यक्त है––

अपलक लगती हो एक रात!
सब सोए हों इस भूतल में,
अपनी निरीहता संबल में,
चलती हो कोई भी न बात।
xxxx
वक्षस्थल में जो छिपे हुए
सोते हों हृदय अभाव लिए।
उनके स्वप्नों का हो न प्रात।

जैसा कि पहले सूचित कर चुके हैं, 'लहर' में कई प्रकार की रचनाएँ हैं। कहीं तो प्रकृति के रमणीय पक्ष को लेकर सुंदर और मधुर रूपकमय गान हैं, जैसे––