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नई धारा

ही वे इत-चेत् पुकार उठे कि 'श्रद्धे! उन चरणों तक ले चल'।श्रद्धा आगे आगे और मनु पीछे पीछे हिमालय पर चढ़ते चले जाते हैं। यहाँ तक कि वे ऐसे महादेश में अपने को पाते हैं जहाँ वे निराधार ठहरे जान पड़ते है। भूमंडल की रेखा का कहीं पता नहीं। यहाँ कवि पूरे रहस्यदर्शी का बाना धारण करता हैं और मनु के भीतर एक नई चेतना (इस चेतना से भिन्न) का उदय बतलाता है। अब मनु को त्रिदिक् (Three dimensions) विश्व और त्रिभुवन के प्रतिनिधि तीन अलग अलग अलोकबिंदु दिखाई पड़ते हैं जो 'इच्छा', 'ज्ञान' और 'क्रिया' के केंद्र से हैं। श्रद्धा एक एक का रहस्य समझाती है।

पहले 'इच्छा' का मधु, मादकता और अँगड़ाईवाला माथा-राज्य है जो रागारुण उषा के संदुक सा सुंदर है जिसमें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध की पारदर्शिनी पुतलियाँ रंग बिरंगी तितलियों के समान नाच रही हैं। यहाँ चल चित्रों की संस्कृति-छाया चारों ओर घूम रही है और आलोकबिंदु को घेरकर बैठी हुई माया मुस्करा रही है। यहाँ चिर वसंत का उद्गम भी है और एक छोर पतझड़ भी अर्थात् सुख और दुःख एक सूत्र में बँधे है। यहीं पर मनोमय विश्व रागारुण चेतन की उपासना कर रहा है।

फिर 'कर्म' का श्यामल लोक सामने आता है जो धुएँ-सा धुँधला है, जहाँ क्षण भर विश्राम नहीं है, सतत संघर्ष और विफलता का कोलाहल रहता है, आकांक्षा की तीव्र पिपासा बनी रहती है, भाव राष्ट्र के नियम दंड बने हुए है। सारा समाज मतवाला हो रहा हैं।

सबके पीछे 'ज्ञान-क्षेत्र' आता है जहाँ सदा बुद्धि-चक्र चलता रहता है। सुख-दुःख से उदासीनता रहती हैं। यहाँ के निरंकुश अणु तर्क-युक्ति से अस्ति-नास्ति का भेद करते रहते हैं और निस्संग होकर भी मोक्ष से संबंध जोड़े रहते हैं। यहाँ केवल प्राप्य (मोक्ष या छुटकारा भर) मिलता है, तृप्ति (आनंद) नहीं; जीवन-रस अछूता छोड़ा रहता है जिसमें बहुत-सा इकट्ठा होकर एक साथ मिले। इससे तृषा ही तृषा दिखाई देती हैं।

अंत में इन तीनों ज्योतिर्मय बिंदुओं को दिखाकर श्रद्धा कहती है कि यही त्रिपुर हैं जिसमें इच्छा, कर्म और ज्ञान एक दूसरे से अलग अलग अपने केंद्र आप ही बने हुए हैं। इनका परस्पर न मिलना ही जीवन की असली विडंबना

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