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नई धारा

जिस समन्वय का पक्ष कवि ने अंत में सामने रखा है उसका निर्वाह रहस्यवाद की प्रकृति के कारण काव्य के भीतर नहीं होने पाया है। पहले कवि ने कर्म को बुद्धि या ज्ञान की प्रवृत्ति के रूप में दिखाया, फिर अंत में कर्म और ज्ञान के विंदुओं को अलग अलग रखा। पीछे आया हुआ ज्ञान भी बुद्धिव्यव सायात्मक ज्ञान ही है (योगियों या रहस्यवादियों को पर-ज्ञान नहीं) यह बात "सदा चलता है बुद्धिचक्र" से स्पष्ट है। जहाँ "रागारुण कंदुक सा, भावमयी प्रतिभा का मंदिर" इच्छाबिंदु मिलता है वहाँ इच्छा रागात्मिका वृत्ति के अंतर्गत है; अतः रति-काम से उत्पन्न श्रद्धा की ही प्रवृत्ति ठहरती है। पर श्रद्धा उससे अलग क्या तीनों विंदुओं से परे रखी गई है।

रहस्यवाद की परंपरा में चेतना से असंतोष की रूढ़ि चली आ रही है। प्रसाद जी काव्य के आरंभ में ही 'चिंता' के अंतर्गत कहते हैं––

मनु का मन या विकल हों उठा संवेदन से खाकर चोट
संवेदन जीवन जगती को जो कटुता से देता घोट।
संवेदन का और हृदय का यह संघर्ष न हो सकता
फिर अभाव असफलताओं की गाथा कौन कहाँ बकता?

इन पंक्तियों मे तो 'संवेदन' बोध-वृत्ति के अर्थ में व्यवहृत जान पड़ता है, क्योंकि सुख-दुःखात्मक अनुभूति के अर्थ में लें तो हृदय के साथ उसका संघर्ष कैसा? बोध के एकदेशीय अर्थ में भी यदि 'संवेदन' को लें तो भी उसे भावभूमि से खारिज नहीं कर सकते। प्रत्येक 'भाव' का प्रथम अवयव विषय-बोध ही होता है। स्वप्न-दशा में भी, जिसका रहस्य-क्षेत्र में बड़ा माहात्म्य है, यह बिषय-बोध रहता है। श्रद्धा जिस करुणा, दया आदि की प्रवर्तिका कही गई है, उसमें दूसरों की पीड़ा का बोध मिला रहता है।

आगे चलकर यह 'संवेदन' शब्द अपने वास्तविक या अवास्तविक दुःख पर कष्टानुभव के अर्थ में आया है। मनु की बिगड़ी हुई प्रजा उनसे कहती है––

हम संवेदनशील हो चले, यही मिला सुख।
कष्ट समझने लगे बनाकर निज कृत्रिम दुख‌।

मतलब यह कि अपनी किसी स्थिति को लेकर दुःख को अनुभव करना ही