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वीरगाथा

पर चढ़ाई की थी। चंदेल कन्नौज के पक्ष में दिल्ली के चौहान पृथ्वीराज से बराबर लड़ते रहे।


(६) जगनिक (सं॰ १२३०)——ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमाल के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे जिन्होंने महोबे के दो देशप्रसिद्ध वीरों——आल्हा और ऊदल (उदयसिंह)——के वीर चरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमशः सारे उत्तरीय भारत में——विशेषतः उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे——हो गया। जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा-भाषी प्रांतों के 'गाँव गाँव' में सुनाई पड़ते हैं। ये गीत 'आल्हा' के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाए जाते हैं। गाँवों में जाकर देखिए तो मेघ-गर्जन के बीच में किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह वीरहुंकार सुनाई देगी——

बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै जिऐं सियार।
बरिस अठारह छ‌‌त्री जीऐं, आगे जीवन के धिक्कार।

इस प्रकार साहित्यक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ काल-यात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नए अस्त्रों (जैसे, बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे, फिरंगी) के नाम संमिलित हो गए हैं और बराबर होते जाते हैं। यदि यह ग्रंथ सहित्यिक प्रबंधपद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था इससे पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा की ओर नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूँज बनी रही——पर यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं। आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केंद्र माना जाता है; वहाँ इसके गानेवाले