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हिंदी-साहित्य का इतिहास

सवेरा होने पर नक्षत्र भी छिप जाते हैं, उल्लू भी। बस इतने-से साधर्म्य को लेकर कवि ने नक्षत्रों को उल्लू बनाया है––साफ सुथरे उल्लू सही––और उन्हें अँधेरे उर में छिपने के लिये आमंत्रित किया है। पर इतने उल्लू यदि डेरा डालेंगे तो मन की दशा क्या होगा? कवि यदि अपने हृदय के नैराश्य और अवसाद की व्यंजना करनी थी तो नक्षत्रों को बिना उल्लू बनाए काम चल सकता था।

कहीं कहीं संकीर्ण समास पद्धति के कारण कवि की विवक्षित भावनाएँ अस्फुट सी है, जैसे नक्षत्रों के प्रति ये वाक्य––

ऐ! आतुर उर के संमान!
अब मेरी उत्सुक आँखों से उमड़ो।
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मुग्ध दृष्टि की चरम विजय।

पहली पंक्ति में 'संमान' शब्द उस सजावट के लिए आया है जो प्रिय से मिलने के लिये आतुर व्यक्ति उसके आने पर या आने की आशा पर बाहर के सामानों द्वारा और भीतर प्रेम से जगमगाते अनेक सुंदर भावों द्वारा करता हैं। दूसरी पंक्ति में कवि का तात्पर्य यह है कि प्रियदर्शन के लिये उत्सुक आँखें असंख्य-सी हो रही है। उन्हीं की ज्योति आकश में नक्षत्रों के रूप में फैले। तीसरी पंक्ति में 'चरम विजय' का अभिप्राय है लगातार एक टक ताकते रहने में बाजी मारना।

पर इन साम्य-प्रधान रचनाओं में कहीं कहीं बहुत ही सुंदर आध्यात्मिक कल्पना है, जैसे छाया के प्रति इस कथन में––

हाँ सखि! आओ बाँह खोल हम लगकर गले जुड़ा लें प्राण
फिर तुम तुम में मैं प्रियतम में हो जावें द्रुत अंतर्धान।

कवि कहता है कि हे छायारूप जगत्! आओ, मैं तुम्हें प्यार कर लूँ! फिर तुम कहाँ और मैं कहाँ! मैं अर्थात् मेरी आत्मा तो उस अनंत ज्योति में मिल जायगी और तुम अव्यक्त प्रकृति या महाशून्य में विलीन हो जाओगे।

'पल्लव' के भीतर 'उच्छ्वास', 'आँसू', 'परिवर्तन' और 'बादल' आदि