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नई धारा

रचनाएँ देखने से पता चलता है कि यदि 'छायावाद' के नाम से एक 'वाद' न चल गया होता तो पंत जी स्वच्छंदता के शुद्ध और स्वाभाविक मार्ग (True romanticism) पर ही चलते। उन्हें प्रकृति की ओर सीधे आकर्षित होनेवाला, उसके खुले और चिरंतन रूपों के बीच खुलनेवाला हृदय प्राप्त था। यही कारण है कि 'छायावाद' शब्द मुख्यतः शैली के अर्थ में, चित्रभाषा के अर्थ में ही उनकी रचनाओं पर घटित होता है। रहस्यवाद की रूढ़ियों के रमणीय उदाहरण प्रस्तुत करने के लिये उनकी प्रतिभा बहुत कम प्रवृत्त हुई है। रहस्य-भावना जहाँ है वहीं अधिकतर स्वाभाविक हैं।

पल्लव में रहस्यात्मक रचनाएँ हैं 'स्वप्न' और 'मौन निमंत्रण'। पर जैसा कि पहले कह आए है, पंत जी की रहस्य-भावना स्वाभाविक है, साप्रदायिक (Dogmatic) नहीं[१]। ऐसी रहस्य-भावना इस रहस्यमय जगत् के नाना रूपों को देख प्रत्येक सहृदय व्यक्ति के मन में कभी कभी उठा करती है। व्यक्त जगत् के नाना रूपों और व्यापारों के भीतर किसी अज्ञात चेतन सत्ता का अनुभव-सा करता हुआ कवि इसे केवल अतृप्त जिज्ञासा के रूप में प्रकट करता है। दूसरी बात ध्यान देने की यह है कि उस अज्ञात प्रियतम के प्रति प्रेम की व्यंजना में भी कवि ने प्रिय और प्रेमिका का स्वाभाविक पुरुष-स्त्री-भेद रखा है; 'प्रसाद' जी के समान दोनों को पुलिंग रखकर फारसी या सूफी रूढ़ि का अनुसरण नहीं किया है। इसी प्रकार वेदना की वैसी वीभत्स विवृति भी नहीं मिलती जैसी यह प्रसाद जी की है––

छिल छिल कर छाले फोड़े, मलकर मृदुल चरण से।

जगत् के पारमार्थिक स्वरूप की जिज्ञासा बहुत ही सुंदर भोलेपन के साथ 'शिशु' को सम्बोधन करके कवि ने इस प्रकार की है––

न अपना ही, न जगत् का ज्ञान, परिचित हैं निज नयन, न कान;
दीखता है जग कैसा, तात! नाम गुण रूप अज्ञान।

कवि, यह समझ कर कि शिशु पर अभी उस नाम रूप का प्रभाव पूरा पूरा


  1. देखो पृष्ठ ६९४।