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नई धारा

मन से दूर हो जाते हैं। यदि किसी बड़े पेड़ के नीचे उसी के गिरे हुए बीजों से जमे हुए छोटे छोटे पौधों को हम आस पास खेलते उसके बच्चे कहे तो आत्मीयता का भाव झलक जायगा।

'कलावाद' के प्रभाव से जिस 'सौंदर्यवाद' का चलन योरप के काव्यक्षेत्र के भीतर हुआ उसकी पंतजी पर पूरा प्रभाव रहा है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कई स्थानों पर सौंदर्य-चयन को अपने जीवन की साधना कहा है, जैसे––

धूल की ढेरी में अनजान छिपे हैं मेरे मधुमय गान।
कुटिल काँटे है कहीं कठोर, जटिल तरुजाल है किसी ओर,
सुमन दल चुन-चुनकर निशि मोर खोजना है अजान वह छोर[१]
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मेरा मधुकर का-सा जीवन, कठिन कर्म हैं, कोमल है मन।

उस समय तक कवि प्रकृति के केवल सुंदर, मधुर पक्ष में अपने हृदय के कोमल और मधुर भावों के साथ लीन था। कर्म-मार्ग उसे कठोर ही कठोर दिखाई पड़ता था। कर्म सौंदर्य का साक्षात्कार उसे नहीं हुआ था। उसका साक्षात्कार आगे चलकर हुआ जब वह धीरे धीरे जगत् और जीवन के पूर्ण स्वरूप की ओर दृष्टि ले गया।

'पल्लव' के अंत में पंतजी जगत् के विषम 'परिवर्तन' के नाना दृश्य सामने लाए हैं। इसकी प्रेरणा शायद उनके व्यक्तिगत जीवन की किसी विषम स्थिति ने की है। जगत् की परिवर्तनशीलता मनुष्यजाति को चिर काल से क्षुब्ध करती आ रही है। परिवर्तन संसार का नियम है। यह बात स्वतः सिद्ध होने पर भी सहृदयों और कवियों का मर्मस्पर्श करती रही है और करती रहेगी, क्योंकि इसका संबंध जीवन के नित्य स्वरूप से है। जीवन के व्यापक क्षेत्र में


  1. यही भाव इँग्लैंड के एक आधुनिक कवि और समीक्षक अबरक्रोंबे ने जो हाल में भरे हैं, इस प्रकार व्यक्त किया है––
    ..........So we are driven onward and upward in a wind of beauty.

    ––Abercrombe.