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नई धारा

मृदुल होठो का हिमजल-हास उड़ा जाता नि:श्वास समीर;
सरल भौहों का शरदाकाश घेर लेते घन घिर गंभीर।
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विश्वमय हें परिवर्तन!
अतल से उमर अकृल, अपार
मेघ से विपुलाकार
दिशावधि में पल विविध प्रकार
अतल में मिलते तुम अविकार।

पहले तो कवि लगातार सुख का दुःख में, उत्थान का पतन में, उल्लास का विषाद में, सरस सुषमा का शुष्कता और ग्लानता में परिवर्तन सामने लाकर हाहाकार का एक विश्व-व्यापक स्वर सुनता हुआ क्षोभ से भर जाता है, फिर परिवर्तन के दूसरे पक्ष पर भी––दुःखदशा से सुखदशा की प्राप्ति पर भी––थोड़ा दृष्टिपात करके चिंतनोन्मुख होता है और परिवर्तन को एक महाकरुण कांड के रूप में देखने के स्थान पर सुख-दुःख की उलझी हुई समस्या के रूप में देखता है, जिसकी पूर्ति इस व्यक्त जगत् में नहीं हो सकती, जिसका सारा रहस्य इस जीवन के उस पार ही खुल सकता है––

आज का दुख, कल का आह्वाद
और कल का सुख, आज विषाद;
समस्या स्वप्न गूढ संसार,
पूर्ति जिसकी उस पार।

इस प्रकार तात्विक दृष्टि से जगत् के द्वंद्वात्मक विधान को समझकर कवि अपने मन को शांत करता है––

मूँदती नयन मृत्यु की रात खोलती नव जीवन को प्रात।
म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान फलों में फलती फिर अम्लान।
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स्वीय कर्मों ही के अनुसार एक गुण फलता विविध प्रकार।
कहीं राखी बनता सुकुमार कहीं बेडी का भार,
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