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हिंदी-साहित्य का इतिहास

बिना दुख के सब सुख नि:सार, बिना आँसू के जीवन भार।
दीन दुर्बल हे रेे संसार; इसी से क्षमा, दया औ प्यार।

और जीवन के उद्देश्य का भी अनुभव करता हैं––

वेदना ही में तप कर प्राण, दमक दिखलाते स्वर्ण-हुलास।
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अलभ हे इष्ट, अतः अनमोल। साधना ही जीवन का मोल।

जीवन का एक सत्य स्वरूप लेकर अत्यंत मार्मिक अर्थ-पथ पर संबद्ध रूप में चलने के कारण, कल्पना की क्रीड़ा और वाग्वैचित्र्य पर प्रधान लक्ष्य न रहने के कारण इस 'परिवर्तन' नाम की सारी कविता का एक समन्वित प्रभाव पड़ता है।

'पल्लव' के उपरांत 'गुंजन' में हम पंत जी को जगत् और जीवन के प्रकृत क्षेत्र के भीतर और बढ़ते हुए पाते हैं, यद्यपि प्रत्यक्ष बोध से अतृप्त होकर कल्पना की रुचिरता से तृप्त होने और बुद्धि-व्यापार से क्लांत होकर रहस्य की छाया में विश्राम करने की प्रवृत्ति भी साथ ही साथ बनी हुई है। कवि जीवन का उद्देश्य बताता है इस चारों ओर खिले हुए जगत् की सुषमा में अपने हृदय को सपन्न करना––

क्या यह जीवन? सागर में जलभार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की क्रीड़ा वीणा से तनिक न लेना?

पर इस जगत् में सुख-सुषमा के साथ दुःख भी तो है। उसके इस सुख दुःखात्मक स्वरूप के साथ कवि अपने हृदय का सांमजस्य कर लेता है––

सुख दुख के मधुर मिलन से यह जीवन हो परिपूरन,
फिर घन में ओझल हो शशि फिर शशि से ओझल हो घन।

कवि वर्तमान जगत् की इस अवस्था से असंतुष्ट है कि कहीं तो सुख की अति हैं, कहीं दुःख की। वह सम भाव चाहता है––

जग पीड़ित है अति-दुख से जग पीड़ित रे अति-सुख से।
मानव-जग में बँट जावें दुख सुख से औ सुख दुख है।