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नई धारा

'मानव' नाम की कविता में जीवन-सौंदर्य की नूतन भावना का उदय कवि, अपने मन में इस प्रकार चाहता है––

मेरे मन के मधुबन में सुषमा के शिशु मुसकाओ।
नव नव साँसों का सौरभ नव मुँख का सुख बरसाओं।

बुद्धिपक्ष ही प्रधान हो जाने से हृदयपक्ष जिस प्रकार दब गया है और श्रद्धाविश्वास का ह्रास होता जा रहा है, इसके विरुद्ध योरप के अनातोले फ्रांस आदि कुछ विचारशील पुरुषों ने जो आंदोलन उठाया उसका आभास भी पंतजी की इन पंक्तियों में मिलता है।

सुंदर विश्वासों से ही बनता रे सुखमय जीवन।

"नौका-विहार" का वर्णन अप्रस्तुत आरोपों से अधिक अच्छादित होने पर भी, प्रकृति के प्रत्यक्ष रूपों की ओर कवि का खिंचाव सूचित करता है––

जैसे, और जगह वैसे ही गुंजन में भी पंतजी की रहस्य भावना अधिकतर स्वाभाविक पथ पर पाई जाती है। दूर तक फैले हुए खेतों, और मैदानों के छोर पर वृक्षावलि की जो धुँधली हरिताभ-रेखा-सी क्षितिज से, मिली, दिखाई पड़ती है उसके उधर किसी-मधुर लोक की कल्पना स्वभावतः होती है––

दूर उन खेतों के उस पार, जहाँ तक गई नील झंकार,
छिपा छायावन में सुकुमार स्वर्ग की परियो का संसार।

कवि की रहस्य-दृष्टि प्रकृति की आत्मा––जगत् के रूपों और व्यापारों में व्यक्त होनेवाली आत्मा––की ओर ही जाती हैं जो "निखिल छवि की छवि है" और जिसका "अखिल जग-जीवन हास-विलास" है। इस व्यक्ति प्रसार के बीच उसका आभास पाकर कुछ क्षण के लिये आनंद-मग्न होना ही मुक्ति है, जिसकी साधना सरल और स्वाभाविक है, हठयोग की-सी चक्करदार-नहीं। मुक्ति के लोभ से अनेक प्रकार की चक्करदार-साधना तो, बंधन-है––

है सहज-मुक्ति का मधु क्षण, पर कठिन मुक्ति का बंधन।

कवि अपनी इस मनोवृत्ति को एक जगह इस प्रकार स्पष्ट भी करता है

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