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हिंदी-साहित्य का इतिहास

वह कहता है कि इस जीवन की तह में जो परमार्थ तत्व छिपा हुआ कहा जाता है उसे पकड़ने और उसमें लीन होने के लिये बहुत-से लोग अंतर्मुख होकर गहरी गहरी डुबकियाँ लगाते है; पर मुझे तो उसके व्यक्त आभास ही रुचिकर हैं, अपनी पृथक् सत्ता विलीन करते भय-सा लगता है––

सुनता हूँ इस निस्तल जल में रहती मछली मोतीवाली;
पर मुझे डूबने का भय है; भाती तट की चल जल-माली।
आएगी मेरे पुलिनों पर वह मोती की मछली सुंदर।
मैं लहरों के तट पर बैठा देखूँगा उनकी छवि जी भर॥

कहने का तात्पर्य यह कि पंतजी की स्वाभाविक रहस्य-भावना को 'प्रसाद' और 'महादेवी वर्मा' की सांप्रदायिक रहस्य-भावना से भिन्न समझना चाहिए। पारमार्थिक ज्ञानोदय को अवश्य उन्होंने 'कुछ भी आज न लूँगी मोल' नामक गीत में प्रकृति की सारी विभूतियों से श्रेष्ठ कहा है। रहस्यात्मकता की अपेक्षा कवि में दार्शनिकता अधिक पाई जाती है। 'विहँग के प्रति' नाम की कविता में कवि ने अव्यक्त प्रकृति के बीच चैतन्य के सान्निध्य से, शब्द-ब्रह्म के संचार या स्पंदन (Vibration) से सृष्टि के अनेक रूपात्मक विकास का बड़ा ही सजीव चित्रण किया हैं––

मुक्त पंखों में उड दिन रात सहज स्पंदित कर जग के प्राण;
शून्य नभ में भर दी अज्ञात, मधुर जीवन की मादक तान।
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छोड़ निर्जन का निभृत निवास, नीड़ में बँध जग के आनंद,
भर दिए कलरव से दिशि-आस गृहों में कुसुमित, मुदित, अमंद।
रिक्त होते जब जब तरुवास, रूप धर तू नव नव तत्काल,
नित्य नादित रखता सोल्लास, विश्व के अक्षयवट की डाल।

'गुंजन' में भी पंतजी की प्रतिभा बहुत ही व्यंजक और रमणीय साम्य जगह जगह सामने लाती है, जैसे––

खुल खुल नव नव इच्छाएँ फैलातीं जीवन के दल
गा गा प्राणों का मधुकर पीता मधुरस परिपूरण।