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हिंदी-साहित्य का इतिहास

उसे बाहर जगत् में 'सौंदर्य, स्नेह, उल्लास' का अभाव दिखाई पड़ा है। इससे वह जीवन की सुंदरता की भावना मन में करके उसे जगत् में फैलाना चाहता है––

सुंदरता, का आलोक स्त्रोत है फूट पड़ा मेरे मन में,
जिससे नव जीवन, का प्रभात होगा फिर जग के आँगन में।
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में सृष्टि एक, रच रहा नवल भावी मानव के हित, भीतर।
सौंदर्य, स्नेह, उल्लाल मुझे मिल सका नही जग में बाहर।

अब कवि प्रार्थना करता है कि––

जग-जीवन में, जो चिर महान् सौंदर्यपूर्ण औ सत्यप्राण।
मैं उसका प्रेमी बनूँ नाथ! जिसमें मानव-हित हो, समान।

नीरस और टूठे जगत् में क्षीण कंकालों के लोक में वह जीवन का वसंत विकास चाहता––

कंकाल-जाल-जग में फैले फिर नवल रुधिर, पल्लव-लाली।

ताजमहल के कला-सौंदर्य को देख अनेक, कवि मुग्ध हुए हैं। पर करोड़ों की संख्या में भूखों मरती जनता के बीच ऐश्वर्य-विभूति के उस विशाल आडंबर के खड़े होने की भावना से क्षुब्ध होकर युगांत के बदले हुए पंतजी कहते हैं––

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन!
जब विप्पण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
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मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति।
आत्मा का अपमान, प्रेत औ छाया से रति।
शव को दें हम रूप-रंग, आदर मानव का।
मानव को हम कुत्सित-चित्र बनावें शव का।

'पल्लव' में कवि अपने व्यक्तित्व के घेरे में बँधा हुआ, 'गुंजन' में कभी-कभी उसके बाहर शौर 'युगांत' में लोक के बीच, दृष्टि फैलाकर आसन जमाता