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नई धारा

हुआ दिखाई पड़ता है। 'गुंजन' तक वह जगत् से अपने लिये सौंदर्य और आंनद का चयन करता प्रतीत होता है; 'युगांत' में आकर वह सौंदर्य और आंनद का जगत् में पूर्ण प्रसार देखना चाहता है। कवि की सौंदर्य-भावना अब व्यापक होकर मंगल-भावना के रूप में परिणत हुई है। अब तक कवि लोकजीवन के वास्तविक शीत और ताप से अपने हृदय को बचाता-सा आता रहा; अब उसने अपना हृदय खुले जगत् के बीच रख दिया है कि उसपर उसकी गतिविधि का सच्चा और गहरा प्रभाव पड़े। अब वह जगत् ओर जीवन में जो कुछ सौंदर्य, माधुर्य प्राप्त है अपने लिये उसका स्तवक बनाकर तृप्त नहीं हो सकता। अब वह दुःख-पीड़ा, अन्याय-अत्याचार के अंधकार को फाड़-कर मंगलज्योति फूटती देखना चाहता है––मंगल का अमंगल के साथ वह संघर्ष देखना चाहता है, जो गत्यात्मक जगत् का कर्म-सौंदर्य हैं।

संध्या होने पर अब कवि का ध्यान केवल प्रफुल्ल प्रसून, अलस गंधवाह, रागरंजित और दीप्त दिगंचल तक ही नहीं रहता। वह यह भी देखता है कि––

बाँसों का झुरमुट, संध्या का झुटपुट
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ये नाप रहे निज घर का मग
कुछ श्रमजीवी घर डगमग ढंग
भारी है जीवन, भारी पग!

जो पुराना पड़ गया है, जीर्ण और जर्जर हो गया है और नवजीवन-सौंदर्य लेकर आनेवाले युग के उपयुक्त नहीं है उसे पंतजी बड़ी निर्ममता के साथ हटाना चाहते हैं––

द्रुत झरो जगत् के जीर्णं पत्र। हे स्त्रस्त,ध्वस्त! हे शुष्क, शीर्ण!
हिम-ताप-पीत, मधु बात-भीत, तुम वीत-राग, जड़ पुराचीन!


झरें जाति-कुल-वर्ण-पर्ण-घन। अंधः नीड़ से रूढ-रीति छन।

इस प्रकार कवि की वाणी में लोकमंगल की आशा और आकांक्षा के साथ-