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हिंदी-साहित्य का इतिहास

घोर 'परिवर्तनवाद' का स्वर भी भर रहा है। गत युग के अवशेषों ध्वस्त दल का अत्यंत रौद्र आग्रह प्रकट किया गया है––

गर्जन कर मानव केसरि!
प्रखर नखर नत्र जीवन की लालसा गडा कर।
छिन्न भिन्न कर दें गत युग के शव को दुर्धर!

ऐसे स्थलों को देख यह संदेह हो सकता है कि कवि अपनी वाणी को केवल आदोलनों के पीछे लग रहा है या अपनी अनुभूति की प्रेरणा से परिचालित कर रहा है। आशा है कि पंतजी अपनी लोकमंगल-भावना को ऐसे स्वाभाविक मर्मपथ पर ले चलेंगे जहाँ इस प्रकार के संदेह का अवसर न रहेगा।

'युगांत' में नर-जीवन की वर्तमान दशा की अनुभूति ही सर्वत्र नहीं है। हृदय की नित्य और स्थायी वृतियों की व्यंजना भी, कल्पना की पूरी रमणीयता के साथ, कई रचनाओं में मिलती है। सबसे ध्यान देने की बात यह है कि 'बाद' की लपेट से अपनी वाणी को कवि ने एक प्रकार से मुक्त कर लिया है। चित्रभाषा और लाक्षणिक वैचित्र्य के अनावश्यक प्रदर्शन की वह प्रवृत्ति अब नहीं हैं जो भाषा और अर्थं की स्वाभाविक गति में बाधक हो। 'संध्या', 'खद्योत', 'तितली', 'शुक्र' इत्यादि रचनाओं में जो रमणीय कल्पनाएँ हैं उनमें दूसरे के हृदय में ढलने की पूरी द्रवणशीलता है। 'तितली' के प्रति यह संबोधन लीजिए––

प्रिय तितली! फूल-सी ही फूली
तुम किस सुख में हो रही ढोल?
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क्या फूलों से ली, अनिल-कुसुम!
तुमने मन के मधु को मिठास?

हवा में उड़ती रंग-विरंगी तितलियों के लिये 'अनिल-कुसुम' शब्द की रमणीयता सबका हृदय स्वीकार करेगा। इसी प्रकार 'खद्योत' के सहसा चमक उठने पर यह कैसी सीधी-सादी सुंदर भावना है।

अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह।