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नई धारा

'युगवाणी' में तो वर्तमान जगत् में सामाजिक व्यवस्था के संबंध में प्रायः जितने वाद, जितने आंदोलन उठे हुए है सबका समावेश किया गया है। इन नाना वादों के संबंध में अच्छा तो यह होता कि उनके नामों का, निर्देश न करके, उनके भीतर जो जीवन का सत्याश है उसका मार्मिक रूप सामने रख दिया जाता। ऐसा न होने से जहाँ इन वादों के नाम आए है वहाँ कवि का अपना रूप छिपा-सा लगता है। इन वादों को लेकर चले हुए आंदोलनों में कवि को मानवता के नूतन विकास का आभास मिलता दिखाई पड़ा है। उस आगामी विकास के कल्पित स्वरूप के प्रति तीव्र आकर्षण प्रकट किया गया है। जो वर्तमान पाश्चात्य साहित्य-क्षेत्र की एक रूढ़ि (worship of the future) के मेल में है। अतः लोक के भावी स्वरूप के सुंदर चित्र के प्रति व्यंजित ललक या प्रेम को कोई चाहे तो उपयोगिता की दृष्टि से कल्पित एक आदर्श भाव का उदाहरण मात्र कह सकता है। इसी प्रकार अतीत के सारे अवशेषों को सर्वथा ध्वस्त देखने की रोषपूर्ण आकुलता का ध्यान भी मनुष्य की स्थायी अंत:प्रकृति के बीच कहीं मिलेगा, इसमें संदेह है।

बात यह है कि इस प्रकार के भाव वर्तमान की विषम स्थिति से क्षुब्ध, कर्म में तत्पर मन के भाव हैं। ये कर्म-काल के भीतर जगे रहते हैं। कर्म में रत मनुष्य के मन में सफलता की आशा, अनुमित भविष्य के प्रति प्रबल अभिलाष,बाधक वस्तुओं के प्रति रोष आदि का संचार होता है। ये भाव व्यावहारिक है, अर्थ-साधना को प्रक्रिया से संबंध रखते हैं और कर्म-क्षेत्र में उपयोगी माने जाते हैं। पंतजी ने वर्तमान को जगत् का कर्म-काल मानकर उसके अनुकूल भावों का स्वरूप सामने रखा है। सारांश यह कि जिस मन के भीतर कवि ने इन भावों को अवस्थान किया है वह 'कर्म का मन' है।

इस रूप में कवि यदि लोक-कर्म में प्रवृत्त नहीं तो कम से कम कर्मक्षेत्र में उतरे हुए लोगों के साथ चलता दिखाई पड़ रहा है। स्वतंत्र द्रष्टा का रूप उसका नहीं रह गया है। उसका तो "सामूहिकता ही निजत्व धन" है। सामूहिक धारा जिधर जिधर चल रही है उधर उधर उसका स्वर भी मिला सुनाई पड़ रहा है। कहीं वह 'गत संस्कृति के गरल' धनपतियों के अंतिम क्षण बता रहा है, कहीं मध्यवर्ग को 'संस्कृति का दास और उच्च वर्ग की सुविधा का