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हिंदी-साहित्य का इतिहास

'शाख्रोक्त प्रचारक' तथा श्रमजीवियों को 'लोकक्रांति का अग्रदूत' और नव्य सभ्यता का उपासक कह रहा है और कहीं पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित स्त्री जाति की यह दशा सूचित कर रहा है––

पशु-बल से कर जन शासित,
जीवन के उपकरण सदृश।
नारी भी कर ती अधिकृत?
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अपने ही भीतर छिप छिप
जग से हो गई तिरोहित।

पंतजी ने समाजवाद के प्रति भी रूचि दिखाई है और 'गांधीवाद' के प्रति भी। ऐसा प्रतीत होती हैं कि लोक-व्यवस्था के रूप में तो 'समाजवाद' की बातें उन्हें पसंद हैं और व्यक्तिगत साधना के लिये 'गाँधीवाद' की बातें। कवि की दृष्टि में सब जीवों के प्रति आत्मभाव ही जीव-जगत् की 'मनुष्यत्व में परिणति' हैं। मनुष्य की अपूर्णता ही उसकी शोभा हैं। 'दुर्बलताओं से शोभित मनुष्यत्व सुरत्व से दुर्लभ हैं। 'पूर्ण सत्य' और असीम को ही श्रद्धा के लिये ग्रहण करने के फेर में रहना सभ्यता की बड़ी भारी व्याधि है। सीमाओं के द्वारा, उन्हीं की रेखाओं से, मंगल-विधायक आदर्श बनकर खड़े होते हैं। 'मानवपन’ में दोष है, पर उन्हीं दोषों की रगड़ खाकर वह मँजता है, शुद्ध होता है––

व्याधि सभ्यता की है निश्चित पूर्ण सत्य का पूजन;
प्राणहीन वह कला, नहीं जिसमें अपूर्णता शोभन।
सीमाएँ आदर्श सकल, सीमा-विहीन यह जीवन,
दोषों से ही दोष-शुद्ध है मिट्टी का मानवपन।

'समाजवाद' की बातें कवि ने ग्रहण की हैं पर अपना चिंतन स्वतंत्र रखा हैं। समाजवाद और संघवाद (Communism) के साथ लगा हुआ 'संकीर्ण भौतिकवाद' उसे इष्ट नहीं। पारमार्थिक दृष्टि से वह परात्परवादी है। आत्मा और भूतों के बीच संबंध स्थापित करनेवाला तत्व वह दोनों से परें बताता है––