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नई धारा

आत्मा और भूतों में स्थापित करता कौन समत्व।
बहिरंतर, आत्मा-भूतों से है अतीत वह तत्व।
भौतिक आध्यात्मिकता केवल उसके दो कूल।
व्यक्ति-विश्व से, स्थूल-सूक्ष्म से परे सत्य के मूल।

यह परात्पर-भाव कवि की वर्त्तमान काव्यदृष्टि के कहाँ तक मेल में है, यह दूसरी बात है। पर जब हम देखते हैं कि उठे हुए सामयिक आंदोलन प्रायः एकांगदर्शी होते हैं, एक सीमा से दूसरी सीमा की और उन्मुख होते हैं तब उनके द्वारा आगामी भव-संस्कृति की जो हरियाली कवि को सूझ रही हैं वह निराधार-सी लगती हैं। हम तो यही चाहेगे कि पंतजी आंदोलनों की। लपेट से अलग रहकर जीवन के नित्य और प्रकृत स्वरूप को लेकर चलें और उसके भीतर लोक-मंगल की भावना का अवस्थान करें।

जो कुछ हो, यह देखकर प्रसन्नता होती हैं कि 'छायावाद' के बंधे घेरे से निकलकर पंतजी ने जगत् की विस्तृत अर्थ भूमि पर स्वाभाविक स्वछंदता के साथ विचरने का साहस दिखाया है। सामने खुले हुए रूपात्मक व्यक्त जगत् से ही सच्ची भावनाएँ प्राप्त होती हैं, 'रूप ही उर में मधुर भाव बन जाता' है, इस 'रूप-सत्य' का साक्षात्कार कवि ने किया है।

'युगवाणी' में नर-जीवन पर ही विशेष रूप से दृष्टि जमी रहने के कारण कवि के सामने प्रकृति का वह रूप भी आया है जिससे मनुष्य को लड़ना पड़ा है––

वहि, बाढ़, उल्का झंझा की भीषण सू घर
कैसे रह सकता है कोमल मनुष्य कलेवर।

'मानवता' के व्यापक संबंध की अनुभूति के मधुर प्रभाव से 'दो लड़के' में कवि को पासी के दो नंग-धडंग बच्चे प्यारे लगे हैं जो––

जल्दी से टीले के नीचे उधर, उतर कर
हैं चुन ले जाते कूड़े से निधियाँ, सुंदर––
सिगरेट के खाली डिब्बे पन्नी चमकीली,
फीतों के टुकड़े; तसवीरें नीली पीली।

किन्तु नरक्षेत्र के भीतर पंतजी की दृष्टि इतनी नहीं बँध गई है कि चराचर के