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वीरगाथा

दिक्खंत दिट्ठि उच्चरिय[१] वर, इक षलक्क विलँब न करिय।
अलगार[२], रयनि दिन पंच महि[३] ज्यों रुकमिनि कन्हर बरिय॥

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संगह सषिय लिय सहस बाल। रुकमिनिय जेम[४] लज्जत मराल॥
पूज़ियइ गउरि संकर मनाय। दच्छिनइ अंग करि लगिय पाय॥
फिरि देषि देषि प्रिथिराज राज[५]। हँसि मुद्ध मुद्ध चर पट्ट लाज[६]


बज्जिय घोर निसान रान चौहान चहौं दिस।
सकल सूर सामंत समरि बल जंत्र मंत्र तिस॥
उट्ठि राज प्रिथिराज बाग मनो लग्ग वीर नट।
कढत तेग मनबेग़ लगत मनो बीजु झट्ट घट॥

थकि रहे सूर कौतिक गगन, रँगन मगन भइ शोन धर।
हदि[७] हरषि वीर जग्गे हुलसि हुरेउ[८] रंग नव, रत्त[९] वर॥

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पुरासान मुलतान खंधार मीरं। बलष स्थो[१०] बलं तेग अच्चूक तीरं॥
रुहगी फिरंगी इलब्बी सुमानी। ठटी ठट्ट भल्लोच ढाल निसानी॥
मजारी-चषी[११], मुक्ख, जबुक्क लारी[१२]। हजारी-हजारी हुँकै[१३] जोध भारी॥


(४–५) भट्ट केदार, मधुकर कवि (संवत् १२२४-१२४३)––जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्त्तिमान् किया है उसी प्रकार भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट् जयचंद का गुण गाया है। रासो में चंद और भट्ट केदार के संवाद का एक स्थान पर उल्लेख भी है। भट्ट
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  1. चल दीजिए।
  2. अलग ही अलग। दूसरी ओर से।
  3. मध्ये, मधि, में।
  4. जिमि, ज्यों।
  5. प्रदक्षिणा।
  6. हँसकर उस मोहित मुग्धा ने लज्जा से (मुँह पर का) चला दिया अर्थात् सरका लिया।
  7. हृदय में।
  8. फुरयो, स्फुरित हुआ।
  9. रक्त।
  10. साथ।
  11. बिल्ली की सी आँख वाले।
  12. मुँह गीदड़ और लोमड़ी के से।
  13. हुँकार करते।