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नई धारा

समन्वित अर्थ की ओर झुकाव कम हो जाता है। हमारे यहाँ संगीत राग-रागिनियों में बँधकर चलता आया है; पर योरप में उस्ताद लोग तरह तरह की स्वर-लिपियों की अपनी नई नई योजनाओं का कौशल दिखाते हैं। जैसे और सब बातों की, वैसे ही संगीत के अँगरेजी ढंग की भी नकल पहले पहल बंगाल में शुरू हुई। इस नए ढंग की ओर निरालाजी सबसे अधिक आकर्षित हुए और अपने गीतों में इन्होंने उसका पूरा जौहर दिखाया। संगीत को काव्य के और काव्य को संगीत के अधिक निकट लाने का सबसे अधिक प्रयास निरालाजी ने किया है।

एक तो खड़ी बोली, दूसरे स्वरों की घटती बढ़ती के साथ मात्राओं का स्वेच्छानुसार विभाग। इसके कारण 'गवैयों की जबान को सख्त परेशानी होगी" यह बात निरालाजी ने आप महसूस की है। गीतिका में इनके ऐसे ही गीतों का संग्रह है जिनमें कवि का ध्यान संगीत की और अधिक है, अर्थ-समन्वय की ओर कम। उदाहरण––

अभरण भर वरण-गान
वन-वन उपवन-उपवन
जाग छवि, खुले प्राण।
xxx
मधुप-निकर कलरव भर,
गीत-मुखर पिक-प्रिय-स्वर,
स्मर-शर हर केसर-झर,
मधुपूरित गंध, ज्ञान।

जहाँ कवि ने अधिक या कुछ पेचीले अर्थ रखने का प्रयास किया है। वहाँ पद-योजना उस अर्थ को दूसरों तक पहुँचाने में प्रायः अशक्त या उदासीन पाई जाती है। गीतिका का यह गीत लीजिए––

कौन तम के पार? (रे कह)
अखिल-पल के स्रोत, जल-जग,
गगन-घन-घन-धार (रे कह)