पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/७४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
७१७
नई धारा

इशारा करने के अतिरिक्त इन्होंने जगत् के अनेक प्रस्तुत रूपों और व्यापारों को भी अपनी सरस भावनाओं के रंग में देखा है। 'विस्मृति की नींद से जगा-नेवाले' 'पुरातन के मलिन साज' खँडहर से वे जिज्ञासा करते हैं कि "क्या-तुम––

ढीले, करते हौं भव-बंधन नर-नारियों के?

अथवा


हो मलते कलेजा पड़े, जरा-जीर्ण
निर्निमेष-नयनों से।
बाट जोहते हो तुम मृत्यु की,
अपनी संतानों से बुंद भर पानी को तरसते हुए।

इसी प्रकार 'दिल्ली' नाम की कविता में दिल्ली की भूमि पर दृष्टि डालते हुए "क्या यह वही देश है?" कहकर कवि अतीत की कुछ इतिहास प्रसिद्ध बातों और व्यक्तियों को बड़ी सजीवता के साथ मन में लाता है––

नि:स्तब्ध मीनार
मौन हैं मकबरे––
भय में आशा को जहाँ मिलते थे समाचार।
टपक पड़ता था जहाँ आँसुओं में सच्चा प्यार॥

यमुना को देखकर प्रत्यभिज्ञा का उदय हम इस रूप में पाते है––

मधुर मलय में यहीं
गूँजी थी एक वह जो तान,
xxxx
कृषघन अलक में
कितने प्रेमियों का यहाँ पुलक समाया था।

समाज में प्रचलित ढोंग का बड़ा चूभता दृश्य गोमती के किनारे कवि ने देखा है जहाँ एक पुजारी भगत ने बंदरों को तो मालपुआ खिलाया और एक कंगाल भिक्षुक की ओर आँख उठाकर देखा तक नहीं।