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नई धारा

'तुलसीदास' निरालाजी की एक बड़ी रचना है जो अधिकांश अंतर्मुख प्रबंध के रूप में है। इस ग्रंथ में कवि ने जिस परिस्थिति में गोस्वामीजी उत्पन्न हुए उसका बहुत ही चटकीला और रंगीन वर्णन करके चित्रकूट की प्राकृतिक छटा के बीच किस प्रकार उन्हें आनंदमयी सत्ता का बोध हुआ और नवजीवन प्रदान करनेवाले गान की दिव्य प्रेरणा हुई उसका अंतर्वृत्ति के आंदोलन के रूप में वर्णन किया है।

'भविष्य का सुखस्वप्न' आधुनिक योरोपीय साहित्य की एक रूढ़ि है। जगत् की जीर्ण और प्राचीन व्यवस्था के स्थान पर नूतन सुखमयी व्यवस्था के निकट होने के आभास का वर्णन निरालाजी की 'उद्बोधन' नाम की कविता में मिलती है। इसी प्रकार श्रमजीवियों के कष्टों की समानुभूति लिए हुए जो लोक-हितवाद का आंदोलन चला है उसपर भी अब निराला जी की दृष्टि गई है––

वह तोड़ती पत्थर;
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।

इस प्रकार की-रचनाओं में भाषा बोलचाल की पाई जाती। पर निरालाजी की भाषा अधिकतर संस्कृत की तत्सम पदावली से जुड़ी हुई होती है जिसका नमूना "राम की शक्तिपूजा" में मिलता है। जैसा पहले कह चुके हैं, इनकी भाषा में व्यवस्था की कमी प्रायः रहती है जिससे अर्थ या भाव व्यक्त करने में वह कहीं कहीं बहुत ढीली पड़ जाती।



श्री महादेवी वर्म्मा—छायावादी कहे जानेवाले कवियों में महादेवीजी ही रहस्यावाद के भीतर रही हैं। उस अज्ञात प्रियतम के लिये वेदना ही इनके हृदय का भाव-केंद्र है जिससे अनेक प्रकार की भावनाएँ छूट छूटकर झलक मारती रहती हैं। वेदना से इन्होंने अपना स्वाभाविक प्रेम व्यक्त किया है, उसी के साथ वे रहना चाहती हैं। उसके आगे मिलन-सुख को भी वे कुछ नहीं गिनतीं। वे कहती हैं कि—"मिलन का मत नाम ले मैं विहर में चिर हूँ"। इस वेदना को लेकर इन्होंने हृदय की ऐसी ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो