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हिंदी-साहित्य का इतिहास

लोकोत्तर है। कहाँ तक वे वास्तविक अनुभूतियाँ हैं और कहाँ तक अनुभूतियों की स्मणीय कल्पना हैं यह नहीं कह जा सकता।

एक पक्ष में अनंत सुषमा, दूसरे पक्ष में अपार वेदना विश्व के छोर हैं जिनके बीच उसकी अभिव्यक्ति होती हैं––

यह दोनों दो ओरें थीं
संसृति की चित्रपटी की;
उस बिन मेरा दुख सूना,
मुझ बिन वह सुषमा फीकी।

पीड़ा का चसका इतना है कि––


तुमको पीड़ा में ढूँढा।
तुममें ढूँढूँगी पीड़ा।

इनकी रचनाएँ समय समय पर संग्रहों में निकली हैं––नीहार, रश्मि, नीरजा और सांध्य गीत। अब इन सब का एक में बड़ा संग्रह 'यामा' के नाम से बड़े आकर्षक रूप में निकला है। गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध और प्राजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भाव-भंगी। जगह जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।


ऊपर 'छायावाद' के कुछ प्रमुख कवियों का उल्लेख हो चुका हैं। उनके साथ ही इस वर्ग के अन्य उल्लेखनीय कवि हैं––सर्वश्री मोहनलाल महतो 'वियोगी', भगवतीचरण वर्मा, रामकुमार वर्मा, नरेंद्र शर्मा और रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'। श्रीवियोगों की कविताएँ 'निर्माल्य', 'एकतारा' और 'कल्पना' में संग्रहीत हैं।श्रीभगवतीचरण की कविताओं के तीन संग्रह हैं––'मधुकण', 'प्रेम संगीत' और 'मानव'। श्री रामकुमार वर्मा ने पहले 'वीर हमीर' और 'चित्तौड़ की चिता' की रचना की थी जो छायावाद के भीतर नहीं आतीं। उनकी इस