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प्रकरण ४

फुटकल रचनाएँ

वीरगाथा काल के समाप्त होते-होते हमें जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे सुने जानेवाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का पता चलता है। पता देनेवाले हैं दिल्ली के खुसरो मियाँ और तिरहुत के विद्यापति। इनके पहले की जो कुछ संदिग्ध असंदिग्ध सामग्री मिलती है उस पर प्राकृत की रूढ़ियों का थोड़ा या बहुत प्रभाव अवश्य पाया जाता है। लिखित साहित्य के रूप में ठीक बोल-चाल की भाषा या जनसाधारण के बीच कहे सुने जानेवाले गीत पद्य आदि रक्षित रखने की ओर मानो किसी का ध्यान ही नहीं था। जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने योग्य समझा जाता है वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई, परंपरा के गौरव से युक्त, भाषा ही पुस्तक रचनेवालो के व्यवहार योग्य समझी जाती थी। पश्चिम की बोलचाल, गीत, मुख-प्रचलित पद्य आदि का नमूना जिस प्रकार हम-खुसरो की कृति मे पाते है उसी प्रकार बहुत पूरब का, नमूना, विद्यापति की पदावली में। उसके पीछे फिर भक्ति काल के कवियों ने प्रचलित देश-भाषा और साहित्य के बीच पूरा पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।

(७) खुसरो––पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् १२४९) के ९० वर्ष पीछे खुसरो ने संवत् १३४० के आस पास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारकशाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकारों और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् १३८१ मे हुईं। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार, और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ-आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिली उसी ढंग के पद्य पहेलियाँ आदि कहने की