ऊपर के मोटे टाइप के शब्दो में खड़ी बोली को कितना निखरा हुआ रूप है! अब इनके स्थान पर ब्रजभाषा के रूप देखिए––
चूक भई कुछ वासों ऐसी। देश छोड़ भयो परदेशी॥
एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी॥
चाम मास वाके नहिं नेक। हाड़ हाड़ में वाके छेद॥
मोहिं अचंभो आवत ऐसे। वामें जीव बसत हैं कैसे॥
अब नीचे के दोहे और गीत बिल्कुल ब्रजभाषा अर्थात् मुख-प्रचलित काव्यभाषा में देखिए––
उज्जल वरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान॥
खुसरो रैन सुहाग की जागी पीके संग। तन मेरो मन पीउ को, दोउ भए एकरंग॥
गोरी सोवै सेज पर मुख पर डारै केस। चल खुसरों घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥
मोरा जोबना नवेलरा भयो है गुलाल। कैसै गर दीनी वकस मोरी माल॥
सूनी सेज डरावन लागै, बिरहा-अगिन मोहि डस डस जायें।
हजरत निजामदीन चिस्ती जरजरीं बख्श पीर
जोइ जोइ ध्यावैं तेइ तेइ फल पावै,
मेरे मन की मुराद भर दीजै अमीर॥
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबें हिज्रांं न दारम, ऐ जाँ! न लेहु काहें लगाये छतियाँ॥
शबाने हिज्रां दराज चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी! पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियां!॥