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की प्रवृत्तियों का सामान्य और संक्षिप्त उल्लेख करके ही छोड़ देने का था, क्योंकि वर्तमान लेखकों और कवियों के संबंध में कुछ लिखना अपने सिर एक बला मोल लेना ही समझ पड़ता था। पर जी न माना। वर्तमान सहयोगियों तथा उनकी अमूल्य कृतियों का उल्लेख भी थोड़े बहुत विवेचन के साथ डरते डरते किया गया।

वर्तमान काल के अनेक प्रतिभा-संपन्न और प्रभावशाली लेखकों और कवियों के नाम जल्दी में या भूल से छूट गए होंगे| इसके लिये उनसे-तथा उनसे भी अधिक उनकी कृतियों से विशेष रूप में परिचित महानुभावों से क्षमा की प्रार्थना है। जैसा पहले कहा जा चुका है, यह पुस्तक जल्दी में तैयार करनी पड़ी है इससे इसका जो रूप मैं रखना चाहता था वह भी इसे पूरा पूरा नहीं प्राप्त हो सका है। कवियों और लेखकों के नामोल्लेख के संबंध में एक बात का निवेदन और है। इस पुस्तक का उद्देश्य संग्रह नहीं था| इससे आधुनिक काल के अंतर्गत सामान्य लक्षणों और प्रवृत्तियों के वर्णन की ओर ही अधिक ध्यान दिया गया है, अगले संस्करण में इस काल का प्रसार कुछ और अधिक हो सकता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि हिंदी-साहित्य का यह इतिहास 'हिंदी-शब्दसागर' की भूमिका के रूप में 'हिंदी-साहित्य का विकास' के नाम से सन् १९२९ के जनवरी महीने में निकल चुका है। इस अलग पुस्तकाकार संस्करण में बहुत सी बातें बढ़ाई गई हैं---विशेषतः आदि और अंत में। आदि काल के भीतर अपभ्रंश की रचनाए भी ले ली गई हैं क्योंकि वे सदा से 'भाषा-काव्य' के अंतर्गत ही मानी जाती रही हैं। कवि परंपरा के बीच प्रचलित जनश्रुति कई ऐसे प्राचीन भाषा काव्यों के नाम गिनाती चली आई है जो अपभ्रंश में हैं--जैसे, कुमारपालचरित और शार्ङ्गधर-कृत हम्मीररासो। 'हम्मीररासो' का पता नहीं है। पर 'प्राकृत पिंगल सूत्र' उलटते-पुलटते मुझे हम्मीर के युद्धो के वर्णन- वाले कई बहुत ही ओजस्वी पद्य, छंदों के उदाहरण में, मिले। मुझे पूर्ण निश्चय हो गया है कि ये पद्य शार्ङ्गधर के प्रसिद्ध 'हम्मीररासो' के ही हैं।

आधुनिक काल के अंत में वर्तमान काल की कुछ विशेष प्रवृत्तियों के