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हिंदी-साहित्य का इतिहास

खड़े किए गए हैं, इत्यादि। इन जोगियो के पंथ में कुछ मुसलमान भी आए। इसका उल्लेख पहले हो चुका है[१]

भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आई उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू-मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य भक्तिमार्ग की भी भावना कुछ लोगों में जगाई। हृदयपक्ष-शून्य सामान्य अंतस्साधना का मार्ग निकालने का प्रयत्न नाथ-पंथी कर चुके थे, यह हम कह चुके हैं। पर रागात्मक तत्त्व से रहित साधना से ही मनुष्य की आत्मा तृप्त नहीं हो सकती। महाराष्ट्र देश के प्रसिद्ध भक्त नामदेव (सं॰ १३२८-१४०८) ने हिंदू-मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य भक्ति-भार्ग का भी आभास दिया। उसके पीछे कबीरदास ने विशेष तत्परता के साथ एक व्यवस्थित रूप में यह मार्ग 'निगुण-पंथ' के नाम से चलाया। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कबीर के लिये नाथपंथी जोगी बहुत कुछ रास्ता निकाल चुके थे। भेदभाव को निर्दिष्ट करनेवाले उपासना के बाहरी विधानों को अलग रखकर उन्होंने अंतस्साधना पर जोर दिया था। पर नाथपंथियो की अंतःसाधना हृदयपक्ष-शून्य थी, उसमें प्रेमतत्व का अभाव था। कबीर ने यद्यपि नाथपंथ की बहुत सी बातों को अपनी बानी में जगह दी, पर यह बात उन्हें खटकी। इसका संकेत उनकें ये वचन देते हैं––

झिलमिल झगरा झूलते बाकी रही न काहु। गोरख अटके कालपुर कौन कहावै साहु॥
बहुत दिवस ते हिंडिया सुन्नि समाधि लगाइ। करहा पड़िया गाड़ में दूरि परा पछिताइ॥

[करहा=(१) करम, हाथी का बच्चा (२) हठयोग की क्रिया करनेवाला]

अतः कबीर ने जिस प्रकार एक निराकार ईश्वर के लिये भारतीय वेदांत का पल्ला पकड़ा उसी प्रकार उस निराकार ईश्वर की भक्ति के लिये सूफियों का प्रेमतत्त्व लिया और अपना 'निर्गुण-पंथ' बड़ी धूम धाम से निकाला। बात यह थी कि भारतीय भक्तिमार्ग साकार और सगुण रूप को लेकर चला था, निर्गुण और निराकार ब्रह्म भक्ति या प्रेम का विषय नहीं माना जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को सँभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्तिरस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था।


  1. देखो पृ॰ १६।