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वर्णन को थोड़ा और पल्लवित इसलिये करना पड़ा, जिसमें उन प्रवृत्तियों के मूल का ठीक ठीक पता केवल हिंदी पढ़ने वालों को भी हो जाय और वे धोखे में न रहकर स्वतंत्र विचार में समर्थ हों।

मिश्रबंधुओं के प्रकांड कवित्त-संग्रह 'मिश्रबंधु-विनोद' का उल्लेख हो चुका है। 'रीतिकाल' के कवियों के परिचय लिखने में मैंने प्रायः उक्त ग्रंथ से ही विवरण लिए हैं अतः आधुनिक शिष्टता के अनुसार उसके उत्साही और परिश्रमी संकलन-कर्त्ताओ को धन्यवाद देना मैं बहुत जरूरी समझता हूँ। हिंदी पुस्तकों की खोज की रिपोर्ट भी मुझे समय समय पर-विशेषतः संदेह के स्थल आने पर--उलटनी पड़ी है। राय साहब बाबू श्यामसुंदरदास बी० ए० की 'हिंदी-कोविद्-रत्नमाला', श्रीयुक्त पं० रामनरेश त्रिपाठी की 'कविता-कौमुदी' तथा श्रीवियोगीहरि जी के 'ब्रजमाधुरी सार' से भी बहुत कुछ सामग्री मिली है, अतः उक्त तीनो महानुभावों के प्रति मै अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। 'आधुनिक काल' के प्रारंभिक प्रकरण लिखते समय जिस कठिनता का सामना करना पड़ा उसमें मेरे बड़े पुराने मित्र पं० केदारनाथ पाठक ही काम आए। पर न आज तक मैंने उन्हें किसी बात के लिये धन्यवाद दिया है, न अब देने की हिम्मत कर सकता हूँ। 'धन्यवाद' को वे "आजकल की एक बदमाशी" समझते हैं।

इस कार्य में मुझसे जो भूलें हुई हैं उनके सुधार की, जो त्रुटियाँ रह गई हैं उनकी पूर्ति की और जो अपराध बन पड़े है उनकी क्षमा की पूरी आशा करके ही मैं अपने श्रम से कुछ संतोष-लाभ कर सकता हूँ।

काशी रामचंद्र शुक्ल
आषाढ शुक्ल ५, १९८६