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सामान्य परिचय


एक बार ज्ञानदेव इनको साथ लेकर तीर्थयात्री को निकले। मार्ग में ये अपने प्रिय विग्रह बिठोबा (भगवान्) के वियोग में व्याकुल रहा करते थे। ज्ञानदेव इन्हें बराबर समझाते जाते थे कि भगवान् क्या एक ही जगह है; वे तो सर्वत्र है, सर्वव्यापक है। यह मोह छोड़ो। तुम्हारी भक्ति अभी एकांगी है, जब तक निर्गुण पक्ष की भी अनुभूति तुम्हें न होगी, तब तक तुम पक्के न होगे। ज्ञानदेव की बहन मुक्ताबाई के कहने पर एक दिन 'संत-परीक्षा' हुई। जिस गाँव में यह संत मंडली उतरी थी उसमें एक कुम्हार रहता था। मंडली के सब संत चुपचाप बैठ गए। कुम्हार घड़ा पीटने का पीटना लेकर सबके सिर पर जमाने लगा। चोट पर चोट खाकर भी कोई विचलित न हुआ। पर जब नामदेव की ओर बढ़ा तब वे बिगड़ खड़े हुए। इस पर वह कुम्हार बोला "नामदेव को छोड़ और सब घड़े पक्के हैं।" बेचारे नामदेव कच्चे घड़े ठहराए गए। इस कथा से यह स्पष्ट लक्षित हो जाता है कि नामदेव को नाथ-पंथ के योगमार्ग की ओर प्रवृत्त करने के लिये ज्ञानदेव की ओर से तरह तरह के प्रयत्न होते रहे।

सिद्ध और योगी निरंतर अभ्यास द्वारा अपने शरीर को विलक्षण बना लेते थे। खोपड़ी पर चोट खा खाकर उसे पक्की करना उनके लिये कोई कठिन बात न थी। अब भी एक प्रकार के मुसलमान फकीर अपने शरीर पर जोर जोर से डंडे जमाकर भिक्षा माँगते हैं।

नामदेव किसी गुरु से दीक्षा लेकर अपनी सगुण भक्ति में प्रवृत्त नहीं हुए थे, अपने ही हृदय की स्वाभाविक प्रेरणा से हुए थे। ज्ञानदेव बराबर उन्हें "बिनु गुरु होई न ज्ञान" समझाते आते थे। संतों के बीच निगुर्ण ब्रह्म के संबंध में जो कुछ कहा सुना जाता है और ईश्वर-प्राप्ति की जो साधना बताई जाती है, वह किसी गुरु की सिखाई हुई होती है। परमात्मा के शुद्ध निर्गुण स्वरूप के ज्ञान के लिये ज्ञानदेव का आग्रह बराबर बढ़ता गया। गुरु के अभाव के कारण किस प्रकार नामदेव मे परमात्मा की सर्वव्यापकता का उदार भाव नहीं जम पाया था और भेद-भाव बना था, इस पर भी एक कथा चली आती है। कहते हैं कि एक दिन स्वयं बिठोबा (भगवान्) एक मुसलमान फकीर का रूप धरकर नामदेव के समाने आए। नामदेव ने उन्हें नहीं पहचाना। तब उनसे कहा गया कि वे तो