पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६८
हिंदी-साहित्य का इतिहास

परब्रह्म भगवान ही थे। अंत में बेचारे नामदेव ने नागनाथ नामक शिव के स्थान पर जाकर बिसोबा खेचर या खेचरनाथ नामक एक नाथपंथी कनफटे से दीक्षा ली। इसके संबंध में उनके ये वचन हैं––

मन मेरी सुई, तन मेरा धागा। खेचर जी के चरण पर नामा सिंपी लागा।


सुफल जन्म मोको गुरु कीना। दुख बिसार सुख अंतर दीना॥
ज्ञान दान मोको गुरु दीना। राम नाम बिन जीवन हीना॥


किसू हूँ पूजू दूजा नजर में आई।
एके पाथर किज्जे भाव। दूजे पाथर धरिए पाव॥
जो वो देव तो हम बी देव। कहै नामदेव हम हरि की सेव॥

यह बात समझ रखनी चाहिए कि नामदेव के समय में ही देवगिरि पर पठानों की चढ़ाइयाँ हो चुकी थीं और मुसलमान महाराष्ट्र में भी फैल गए थे। इसके पहले ही गोरखनाथ के अनुयायी हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिये अंतस्साधना के एक सामान्य मार्ग का उपदेश देते आ रहे थे।

इनकी भक्ति के अनेक चमत्कार भक्तमाल में लिखे हैं, जैसे––बिठोबा (ठाकुरजी) की मूर्ति का इनके हाथ से दूध पीना; अविंद नागनाथ के शिवमंदिर के द्वार का इनकी ओर घूम जाना इत्यादि। इनके माहात्म्य ने यह सिद्ध कर दिखाया कि "जाति- पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई"। इनकी इष्ट सगुणोपासना के कुछ पद नीचे दिए जाते हैं जिनमें शबरी, केवट आदि की सुगति तथा भगवान् की अवतार-लीला का कीर्तन बड़े प्रेमभाव से किया गया है––

अंबरीषि को दियो अभयपद, राज बिभीषन अधिक कर्‌यो।
नव निधि ठाकुर दई सुदामहिं, ध्रुव जो अटल अजहूँ न टर्‌यो॥
भगत हेत मार्‌यो हरिनाकुस, नृसिंह रूप ह्वै देह धर्‌यो॥
नामा कहै भगति-बस केसव, अजहूँ बलि के द्वार खरो॥