पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/९२

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दसरथ-राय-नंद राजा मेरा रामचंद। प्रणवै नामा तत्व रस अमृत पीजै॥

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धनि धनि मेघा-रोमावली, धनि धनि कृष्ण ओढ़े कावँली।
धनि धनि तू माता देवकी, जिह गृह रमैया कँवलापती॥
धनि धनि बनखँड वृंदावना, जहँ खेलै श्रीनारायना॥
बेनु बजावै, गोधन चारै, नामे का स्वामि आनंद करै॥

यह तो हुई नामदेव की व्यक्तोपासना संबधी हृदय-प्रेरित रचना। आगे गुरु से सीखे हुए ज्ञान की उद्धरणी अर्थात् 'निर्गुन बानी' भी कुछ देखिए––

माइ न होती, बाप न होते, कर्म न होता काया।
हम नहिं होते, तुम नहिं होते, कौन कहाँ ते आया॥
चंद न होता, सूर न होता, पानी पवन मिलाया।
शास्त्र न होता, वेद न होता, करम कहाँ ते आया॥
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पांडे तुम्हरी गायत्री लोधे का खेत खाती थी।
लैकरि ठेंगा टँगरी तोरी लंगत लंगत आती थी॥
पांडे तुम्हरा महादेव धौल बलद, चढा आवत देखा था।
पांडे तुम्हरा रामचन्द्र सो भी आवत देखा था॥
रावन सेंती सरबर होई, घर की जोय गँवाई थी।
हिंदू अंधा तुरकौ काना, दुवौ ते ज्ञानी सयाना॥

हिंदू पूजै देहरा, मुसलमान मसीद। नामा सोई सेविया जहँ देहरा न मसीत॥

सगुणोपासक भक्त भगवान् के सगुण और निर्गुण दोनों रूप मानता हैं, पर भक्ति के लिये सगुण रूप ही स्वीकार करता है; निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिये छोड़ देता है। सब सगुणमार्गी भक्त भगवान् के व्यक्त रूप के साथ साथ उनके अव्यक्त और निर्विशेष रूप का भी निर्देश करते आए हैं जो बोधगम्य नहीं। वे अव्यक्त की ओर संकेत भर करते हैं, उसके विवरण में प्रवृत्त नहीं होते। नामदेव क्यों प्रवृत्त हुए, वह ऊपर दिखाया जा चुका है। जब कि उन्होंने एक गुरु से ज्ञानोपदेश लिया तब शिष्यधर्मानुसार उसकी उद्धरणी आवश्यक हुई।