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हिंदी-साहित्य का इतिहास

जोगिनिपुर दिल्ली बड़ थाना। साह सिकंदर बड़ सुलताना॥

कंठ बैठ सरसुती विद्या गनपति दीन्ह। ता दिन कथा आरंभ यह इसरदास कवि कीन्ह॥

पुस्तक में पाँच-पाँच चौपाईयों (अर्द्धालियों) पर एक दोहा है। इस प्रकार ५८ दोहे पर यह समाप्त हो गई है। भाषा अयोध्या के आस पास की ठेठ अवधी हैं। 'बाटै' (=है) का प्रयोग जगह जगह हैं। यही अवधी भाषा, चौपाई-दोहे का क्रम और कहानी का रूप रंग सूफी कवियों ने ग्रहण किया। आख्यान-काव्यों के लिये चौपाई दोहे की परंपरा बहुत पुराने (विक्रम की ११ वीं शती के) जैन चरित-काव्यों में मिलती है, इसका उल्लेख पहले हो चुका है[१]

सूफियों के ऐस-प्रबंधो में खंडन-मंडन की बुद्धि को किनारे रखकर, मनुष्य के हृदय को स्पर्श करने का ही प्रयत्न किया गया है जिससे इनका प्रभाव हिंदुओं और मुसलमानों पर समान रूप से पड़ता है। बीच बीच में रहस्यमय परोक्ष की ओर जो मधुर संकेत मिलते हैं वे बड़े हृदयग्राही होते हैं। कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है वह बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओ के आधार पर है जो वेदांत और हठयोग में निर्दिष्ट हैं। पर इन प्रेम-प्रबंधकारों ने जिस रहस्यवाद का आभास बीच बीच में दिया है उसके संकेत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी हैं। शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों की शाखा में सबसे प्रसिद्ध जायसी हुए, जिनकी 'पद्मावत' हिंदीकाव्यक्षेत्र में एक अद्भत रत्न है। इस संप्रदाय के सब कवियों ने पूरबी हिंदी अर्थात् अवधी का व्यवहार किया है जिसमें गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपना रामचरितमानस लिखा है।

अपना भावात्मक रहस्यवाद लेकर सूफी जब भारत में आए तब यहाँ उन्हें केवल साधनात्मक रहस्यवाद योगियों, रासायनियों और तांत्रिकों में मिला। रसेश्वर दर्शन का उल्लेख 'सर्वदर्शनसंग्रह' में है। जायसी आदि सूफी कवियों ने हठयोग और रसायन की कुछ बातों को भी कहीं कहीं अपनी कहानियों में स्थान दिया है।

जैसा ऊपर कहा जा चुका है, भक्ति के उत्थानकाल के भीतर हिंदी भाषा में कुछ विस्तृत रचना पहले कबीर की ही मिलती है, अतः पहले निर्गुण संप्रदाय की 'ज्ञानाश्रयी शाखा' का संक्षिप्त विवरण आगे दिया जाता है जिसमें सर्वप्रथम कबीरदासजी सामने आते हैं।



  1. देखो पृ॰ ७।