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संबंध में जो कुछ भी कहा जा सकता है, सूरदास ने कह दिया था, अतः कृष्णदास जो कुछ भी लिखते थे, वह सूरदास जो पहले लिख चुके रहते थे उससे मेल खा जाता था । "एक दिन सुर जी बोले आप अपना कोई पद सुनाओ, जैसा हमारे काव्य में न मिले" । कृष्णदास ऐसा करने में असफल रहे। तब उन्होंने दूसरे दिन एक नया पद बनाकर लाने के लिए कहा और सारी रात नया पद बनाने का व्यर्थ प्रयास करते रहे । प्रभात में उन्होंने अपनी तकिया पर रहस्यमय ढंग से अंकित एक पद पाया, जिसे वह सूरदास के पास ले गए। सूरदास ने तत्काल पहचान लिया, यह उनके महाप्रभु वल्लभाचार्य की रचना है। इस दंत-कथा के होते हुए भी, जो कि यह संकेत करती है। कि इन दोनों कवियों में स्पर्धा थी, कृष्णदास का काव्य सर्वदा ललित और अपनी सीमाओं के भीतर यथासंभव मौलिक हैं। इनका सर्व प्रसिद्ध ग्रंथ प्रेम-रस-रास है। इनके सर्वाधिक प्रसिद्ध शिष्य हैं अग्रदास (संख्या ४४ ), केवल राम (संख्या ४५ ), गदाधर ( संख्या ४६ ), देवा ( संख्या ४७ ), कल्याण( संख्या ४८ }, हटीनारायण ( संख्या ४९ ), पदुमनाभ (संख्या ५० )।अग्रदास के शिष्य भक्तमाले के कर्ता. नाभादास थे, जिनके संबंध में आगे विस्तार से कहा जायेगा।

टि०-अष्टछापी कृष्णदास का नाम कृष्णदास अधिकारी है, न कि कृष्णदास पथअहारी । ग्रियर्सन ने इन दोनों को मिला दिया है। नाम पय अहारी का है, विवरण अधिकारी का । अंत में जो शिष्य नामावली है, वह कृष्णदास पय अहारी के शिष्यों की है-

किल्ह, अगर, केवल, चरण, व्रत
सूरज, पुरुषों, पृथू, तिपुर हरि भक्ति
पद्मनाभ, गोपाल, टेक, टीका, गदाधारी
देवा, हेम, कल्यान, गंगा गंगा सम नारी
विष्णुदास, कम्हर, रंगा, चन्दन सबीरी गोविन्द
पैहारी परसाद से शिष्य सबै भये पारकर

--भक्तमाल छप्पय ३९

कृष्णदास के सिरहाने जो पद लिखा गया था, वह महाप्रभु वल्लभाचार्य का लिसा नहीं था, स्वयं कृष्ण का लिखा था । इस संबंध में सरोज की पदावली यह है----

"सूर जी जान गए कि यह करतूत किसी और ही कौतुकी की है। बोले-अपने बाबा की सहायता की है ।"